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एक संन्यासी को उठा नहीं पाया। नायक ने अपने साथी की ओर देखकर कहा'माधव! मेरे हाथ में कोड़ा दे-यह पागल ऐसे नहीं समझेगा।'
__ माधव ने चमड़े का कोड़ा नायक के हाथ में सौंपा। नायक ने कोड़े को हवा में घुमाते हुए कहा- 'बाबाजी ! सुनो, मैं पांच तक की गिनती बोलूंगा। यदि तुम उस अवधि तक उठकर बाहर नहीं चले गए तो मुझे राजाज्ञा का पालन करना ही होगा।'
संन्यासी मौन था। नायक ने कहा- 'एक।' बाबाजी के सिहरन तक नहीं हुई।
'दो, तीन, चार । बाबाजी! अब अंतिम अंक शेष है। फिर आप मुझे दोष न दें।' दो क्षण शान्त रहकर नायक ने कहा- 'पांच।' और उसी के साथ उसने बाबाबी के शरीर पर कोड़े का तीव्र प्रहार किया। बाबाजी तनिक भी विचलित नहीं हुए।
__ इधर राजभवन में महामंत्री आ गए थे और वीर विक्रम उनके साथ महाकाल के अपमान की चर्चा कर रहे थे।
उधर ऊपर की मंजिल पर रानी कमला के कक्ष से जोर की चीख सुनाई दी-कुछ ही क्षणों पश्चात् कलावती रानी भी चीख उठी।
दासियां आकुल-व्याकुल हो गईं। चीख सुनकर वीर विक्रम और महामंत्री दोनों ऊपर गए और देखा कि दोनों रानियां चिल्लाती हुई धरती पर तड़प रही हैं।
__ इतने में ही रानी कमलावती पुन: चीख उठी। उसकी काया सिमट रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उस पर कोड़े मारे जा रहे हों।
कलावती भी पुन: चीखती हुई तड़पने लगी। वीर विक्रम ने पूछा-'प्रिये, क्या हो रहा है?'
__'महाराज ! मेरे शरीर पर अदृश्य रूप से कोड़े बरस रहे हैं। आप तत्काल महाकाल के मंदिर में पधारें और बाबाजी पर कोड़े न मारने के लिए कहें।' कलावती ने कहा।
तत्काल वीर विक्रम और महामंत्री रथ में बैठकर तीव्र गति से मंदिर की ओर गए।
इधर नायक बाबाजी के शरीर पर दस कोड़े मार चुका था, पर बाबाजी के एक रोएं में भी विचलन नहीं था।
नायक ने अपने कपाल से पसीना पोंछते हुए कहा- 'अरे ओ ढोंगी बाबा! तू मुझे थका नहीं सकेगा-मैं इस कोड़े से तेरी चमड़ी उधेड़ दूंगा।' ३३४ वीर विक्रमादित्य