________________
विक्रम ने पूछा- 'वह नलिका कौन दे गया था?' 'बारह वर्ष का एक बालक दे गया था।' अजय ने कहा।
'अब तुम द्वारपाल को सूचित कर देना कि यदि कोई संदेश देने आए तो उसे जाने मत देना, पकड़कर रखना।'
'जी',कहकर अजय चला मया।
विक्रम असमंजस में पड़ गए। वे अग्निवैताल को भी मुक्त कर चुके थे; अन्यथा उसके सहयोग से यह समस्या समाहित हो जाती।
इधर देवकुमार ने राजभवन में चोरी करने का निश्चय किया। । रात्रि के प्रथम प्रहर के पश्चात वीर विक्रम अपने शयनकक्ष में गए। कमला और कलावती भी वहां आ पहुंची। तीनों चोर के विषय में चर्चा कर रहे थे, इतने में ही दूसरे प्रहर के पूरा होने की आवाज आयी। विक्रम उठ खड़े हुए और बोले'अब मैं जा रहा हूं। प्रात:काल लौटूंगा। आज मैं अवश्य ही चोर को पकड़ लूंगा।' ऐसा कहकर उन्होंने अपने सारे अलंकार उतारकर त्रिपदी पर रखे हुए स्वर्णथाल में रख दिए। फिर विशेष वेशभूषा में वहां से रवाना हो गए।
दोनों रानियां भी अपने-अपने अलंकार एक थाल में रखकर एक ही शय्या पर सो गईं।
देवकुमार ने आज सैनिक का वेश बनाया था और वह सांझ होते-होते राजभवन में घुस गया। वह चामत्कारिक कड़ा उसकी भुजा पर था। उस कड़े के प्रभाव से वह अदृश्य रहता, कोई भी उसे देख नहीं पाता था, किन्तु देवकुमार इस प्रभाव से अजान था। वह तो इतना ही जानता था कि इस कड़े के प्रभाव से कोई उसे पकड़ नहीं सकता।
देवकुमार राजभवन में इधर-उधर जा रहा था। उसने देखा, एक द्वार अभी-अभी खुला है और कोई व्यक्ति विशेष वेशभूषा में बाहर निकला है। उस व्यक्ति ने द्वार पुन: बन्द कर दिया और स्वयं आगे चला गया। देवकुमार तत्काल उस द्वार के पास पहुंचा और धीरे से उसे खोलकर अंदर चला गया। वह सोपानश्रेणी पर चढ़ रहा था। ऊपर से दो सशस्त्र सैनिक नीचे आ रहे थे। देवकुमार एक ओर हो गया। वह अदृश्य तो था ही, सैनिक उसे देख नहीं सके।
वह तीसरी मंजिल पर पहुंचा। उसने देखा कि महाराज के शयनगृह के द्वार पर दो सशस्त्र स्त्री-रक्षिकाएं खड़ी हैं।
देवकुमार ने अपनी थैली से संमूर्छन चूर्ण की चुटकी भरी और रक्षिकाओं के नथुनों पर डाल दी। रक्षिकाएं कुछ भी नहीं देख पा रही थीं। उन रक्षिकाओं ने तत्काल अपने उत्तरीय से नाक पोंछी और एक ही क्षण में घूर्णित होकर नीचे बैठ गईं और तत्काल मूर्च्छित हो गईं।
वीर विक्रमादित्य ३५३