Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 368
________________ राजकुमार ने मुस्कराते हुए दोनों हाथ जोड़कर वंदन करते हुए कहा-'देवी! मेरे मन में एक आश्चर्य उभर रहा है।' चपलसेना ने उन्हें सम्मानपूर्वक आसन पर बिठाते हुए कहा-'कुमारश्री! मेरे मन का भी एक आश्चर्य शांत नहीं हो रहा है।' 'आपका आश्चर्य?' . 'हां, आपका वय अभी यौवन की दहलीज पर चरण रख रहा है। आपको अकेले प्रवास क्यों करना पड़ रहा है?' 'ओह! इस एक प्रश्न से ही आपने मेरे घायल हृदय पर नमक छिड़क डाला। देवी ! मेरी जन्मदात्री मां अचानक मर गई। मेरे पिता राजा ने दूसरा विवाह किया। सौतेली मां के प्रेम में वे इतने फंस गए कि सदा उसी की आंख से देखते हैं। मैं राज्य का अधिकारी हूं। यह बात मेरी सौतेली मां को शूल-सी चुभती है। उसने मुझे विष देकर मारने की योजना बनाई। राजभवन की विश्वस्त दासी से मुझे यह बात ज्ञात हुई और मैं बहाना बनाकर प्रवास करने के लिए घर से निकल पड़ा। मैंने नगर में प्रवेश करते ही प्रहरियों से उत्तम आश्रय-स्थान के लिए पूछा। उन्होंने आपका नाम बताया और मैं पूछता-पूछता यहां पहुंच गया।' 'आपकी बात अत्यन्त रसप्रद है.....आपका आश्चर्य?' 'देवी ! मेरा आश्चर्य यह है कि आपके भवन में प्रवेश करने वाले अतिथि को इतना क्यों पूछा जाता है ?' . चपलसेना ने हंसते हुए कहा- 'मैं आपके प्रश्न का उत्तर दूं, इससे पूर्व मैं जानना चाहती हूं कि आपका शुभ नाम क्या है ?' 'मेरा सही-सही नाम 'जयसेन' है, किन्तु प्रवासकाल में अपरिचित रहने के लिए मैंने अपना नाम 'विजयप्रताप' रखा है। मैंने अपने माता-पिता आदि की पूरी जानकारी आपके संचालकों को दे दी है। फिर भी यदि आप जानना चाहेंगी तो....।' 'नहीं, कुमारश्री ! मुझे कुछ नहीं जानना है।....इतनी पूछताछ के पीछे सबल कारण यह है कि इस नगरी में एक अनाम चोर आ घुसा है और वह बड़ी-बड़ी चोरियां कर रहा है। न चोर पकड़ में आ रहा है और न उसके ठोर-ठिकाने का ही परिचय मिलता है। मैंने उसे आठ दिनों के भीतर-भीतर पकड़कर महाराजा के समक्ष उपस्थित करने का बीड़ा उठाया है। चोर इतना चालाक है कि वह बीड़ा उठाने वाले को ही अपना शिकार बना देता है, इसलिए इतनी पूछताछ की जाती है।' 'आश्चर्य ! ऐसी विराट् नगरी! इतना स्वच्छ राजतंत्र! महाराजा विक्रमादित्य जैसे तेजस्वी भूपाल! और एक तुच्छ चोर को पकड़ने के लिए इतना कुछ करना पड़े! आश्चर्य! आश्चर्य!' वीर विक्रमादित्य ३६१

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