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संध्या का समय हो गया था। राजाज्ञा के अनुसार एक सेनानायक, एक दास और एक पटहवादक - तीनों गांवों की ओर गए और पटहवादन किया ।
गणिकावाड़ा में गए। वहां चपलसेना नामक तीस वर्षीया गणिका रहती थी। वह समृद्ध, बुद्धिमती और उड़ते पंछी को गिराने में चालाक थी। उसने पहले कभी गुप्तचरी का कार्य भी किया था ।
जब पटहवादक उसके भवन के पास पहुंचे, तब चपलसेना स्वर्ण के झूले में झूल रही थी । उसने पटह सुना और तत्काल परिचारिका को भेजकर सेनानायक को भवन में बुला भेजा। परिचारिका ने सेनानायक को देवी की बात कही और भवन में आने की प्रार्थना की।
सेनानायक ऊपर गया । चपलसेना ने उन्हें आदर सहित बिठाते हुए कहा'मैं आपका पटह झेलती हूं। किन्तु मेरी एक शर्त है।'
'कहिए....'
'कल मैं प्रात:काल राजराजेश्वर से मिलने जाऊंगी' तब मेरी शर्त बताऊंगी।
'देवी की जय हो ।' सेनानायक ने हर्षित होकर कहा । सेनानायक नीचे आया । सैकड़ों लोग वहां एकत्रित हो चुके थे। सेनानायक बोला-'देवी चपलसेना ने पटह झेल लिया है ।'
लोगों ने हर्षध्वनि की और सेनानायक पटहवादक के साथ वहां से
चला गया।
राजभवन पहुंचकर उसने महाराजा को सारी बात सुनाई । वीर विक्रम का मन प्रसन्न हो गया, क्योंकि उन्होंने सुना था कि चपलसेना चालाक, बुद्धिमती और चतुर है।
दूसरे दिन प्रात:काल चपलसेना महाराजा से मिलने गई और नगरव्यवस्था के विषय में अपनी शर्त रखती हुई बोली- 'कृपानाथ! नगरी के बारह द्वारों को बंद रखने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि चोर नगरी में ही कहीं रहता है, इसमें कोई शंका नहीं है। इसलिए आप ऐसी आज्ञा करें कि चार दरवाजे रात में भी खुले रहें ।'
'इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है।' विक्रम बोले ।
'आज गुरुवार है। अगले गुरुवार की रात्रि पूरी हो, उससे पहले मैं चोर को आपके सामने उपस्थित कर दूंगी।' चपलसेना ने कहा ।
वीर विक्रम बोले- 'चोर अत्यन्त चालाक है.... ।'
‘मैं समझ चुकी हूं, कृपानाथ ! परन्तु स्त्री की चालाकी और मायाजाल के समक्ष बड़ों-बड़ों को पानी भरना पड़ता है। '
वीर विक्रमादित्य ३५६