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'कृपानाथ ! इन रत्नों का प्रभाव क्या है ?'
'सुन ! इस लाल रत्न से इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति होती है। इस नीले रत्न के प्रभाव से वांछित भोजन प्राप्त होता है। इस पीले रत्न के प्रभाव से वस्त्र - आभूषण प्राप्त होते हैं और श्वेत रत्न के प्रभाव से रोग नष्ट होते हैं। ये चारों रत्न तू वीर विक्रम को दे देना ।'
श्रीधर अपनी साधना की सफलता पर अत्यन्त आनन्दित हुआ और वह अपने गांव की ओर चल पड़ा। दो महीने के लंबे प्रवास के पश्चात् वह अवंती पहुंचा।
पत्नी को रत्नों की बात बताई। पत्नी ने कहा- 'राजा को देने परीक्षा तो कर लें ।'
ब्राह्मण को यह विचार अच्छा लगा। वह एक कमरे में गया और द्वार बंद कर एक आसन पर बैठा। नीले रत्न को सामने रखकर भोजन-सामग्री की इच्छा की। उसी क्षण मिठाई से भरे तीन बर्तन वहां आ गए।
पीले रत्न को नमस्कार कर उसने वस्त्र और आभूषण की इच्छा की। दूसरे ही क्षण स्वयं के लिए, पत्नी के लिए तथा सातों संतानों के लिए दो-दो युगल वस्त्र और एक-एक स्वर्ण की कंठी आ गई ।
पूर्व इनकी
श्रीधर ने सोचा, 'अब इन रत्नों को पास में नहीं रखना चाहिए। कहीं अतिलोभ से और कुछ घटित न हो जाए ।'
वह रत्न अर्पित करने के लिए राजसभा की ओर चल पड़ा। श्रीधर राजसभा में आ पहुंचा। उसने वीर विक्रम से कहा- 'कृपानाथ ! मैंने अपनी दरिद्रता को मिटाने के लिए सागरदेव की आराधना की। उन्होंने मुझे चार रत्न देते हुए कहाये रत्न तू वीर विक्रम को दे देना । वे तेरी दरिद्रता दूर कर देंगे।'
श्रीधर ने चारों रत्न वीर विक्रम को देते हुए उनके प्रभाव का वर्णन किया । यह सुनकर सारी सभा आश्चर्यचकित रह गई ।
वीर विक्रम ने कहा – 'पंडितजी ! पुरुषार्थ आपका, साधना आपकी और फल भी आपको मिला है, तो भला मैं ये रत्न कैसे ले सकता हूं ?'
'कृपानाथ ! सागरदेव आपके मित्र हैं। उनकी आज्ञा का पालन करना मेरा कर्त्तव्य है। ऐसे महान् प्रभावक रत्न मेरे जैसे दरिद्र ब्राह्मण के पास शोभा नहीं देते। आप ही इनको रखें ।'
'अच्छा, पंडितजी ! आप इनमें से कोई भी एक रत्न अपने पास रख लें ।' ‘कृपानाथ! मैं सागरदेव की आज्ञा का उल्लंघन कैसे कर सकता हूं?' 'पंडितजी ! अब ये रत्न मेरे अपने हो गए। मैं एक रत्न आपको देना चाहता हूं, इसलिए यह सागरदेव की आज्ञा का उल्लंघन नहीं माना जा सकता।'
वीर विक्रमादित्य ४२६
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