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प्रकृति नीरव थी। वीर विक्रम ने सुकुमारी की ओर देखकर कहा-'देवी! तुम्हारा कहना सच है। आचार्यश्री ने कहा था-देने में आनन्द है, लेने में नहीं, मेरी चिन्ता सुख की समृद्धि के लिए नहीं थी.....'
"तो फिर....?'
'मेरी चिन्ता केवल प्रजा को सुखी करने की थी। साथ-साथ आत्मसाक्षात्कार की भावना भी रहती थी।'
'स्वामीनाथ....!' सुकुमारी ने कहा।
वीर विक्रम ने पुन: गगन की ओर देखते हुए कहा-'अनन्त गगन का मंगलगीत आज पहली बार मुझे प्राप्त हुआ है।'
गगन की चादर में झिलमिल करते हुए तारकवृन्द हंस रहे थे। उनका हास्य प्रसन्न और मधुर था।
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वीर विक्रमादित्य ४३६