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‘देवी पुष्पसेना के पास कितनी सम्पत्ति है ?' मंत्री ने पूछा ।
'सात कोटि सुवर्ण की संपत्ति है। पुष्पसेना आपके नगर में अपने भाग्य की परीक्षा करना चाहती है, आपकी आज्ञा हो तो !'
वीर विक्रम ने उस परदेशी से कहा- 'तुम मध्याह्न के पश्चात् पुष्पसेना को लेकर राजभवन में आना। मैं उसके साथ बात कर लूंगा।'
परदेशी ने मस्तक झुकाकर प्रसन्नता व्यक्त की ।
उसी दिन मध्याह्न के समय सुन्दरी पुष्पसेना राजभवन में आ गई। महाराजा विक्रम अपने खंड में बैठे थे। अजय ने पुष्पसेना के आगमन की बात कही। वीर विक्रम ने कहा- 'उसे यहां ले आओ।'
पुष्पसेना विक्रम के खंड में गई। वहां बैठे हुए दो मंत्री उसे देखकर अवाक् रह गए – अरे, यह कोई राजरानी तो नहीं है ? इसका तेजस्वी रूप, कामणगारे नयन, सौम्य वदन, मूल्यवान् आभूषण इसको देवांगना का रूप दे रहे हैं। क्या यह वास्तव गणिका है या शापभ्रष्ट कोई अप्सरा है ?'
पुष्पसेना ने महाराजा को नमस्कार किया और संकुचित होकर एक आसन पर बैठ गई ।
विक्रम ने पूछा - 'पुष्पसेना ! इस कठोर शर्त सहित चोपड़ खेलने के पीछे तुम्हारा उद्देश्य क्या है ?'
'कृपानाथ ! दूसरा कोई उद्देश्य नहीं है। मैं सुयोग्य साथी की खोज करने के लिए प्रयत्न कर रही हूं।' पुष्पसेना ने मधुर स्वरों में कहा ।
'इस प्रयत्न में सुयोग्य साथी कैसे प्राप्त हो सकता है ? संभव है कोई मद्यपी, हत्यारा या असंस्कारी व्यक्ति तुम्हें पराजित कर दे। कोई वृद्ध ही जीत जाए ?' 'हां, ये सारी संभावनाएं हैं। जिन्दगी के जुए में इतना खतरा तो उठाना ही पड़ता है । '
वीर विक्रम ने दो क्षण सोचकर कहा - 'बेटी ! यह कार्य तो खतरे से खाली नहीं है। फिर भी तुम्हारी प्रबल इच्छा के कारण मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं। तुम इस विषय की घोषणा नगर में करा देना ।'
सारी नगरी में पटहवादकों के द्वारा यह घोषणा करा दी गई ।
लोगों में भिन्न-भिन्न प्रकार की चर्चाएं होने लगीं। एक ओर सात कोटि स्वर्ण और पुष्पसेना की प्राप्ति का आकर्षण था तो दूसरी ओर जीवन भर दास बनकर रहने का खतरा भी था, इसलिए लोग पुष्पसेना के साथ दांव खेलने में हिचकिचाते थे ।
वीर विक्रमादित्य ४३१