Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 424
________________ 'सामान्य।' सुरभद्र ने कहा। 'पुरुष का सामान्य अभ्यास ही प्रसंग को प्राप्त कर असामान्य बन जाता है।' कहकर योगिनी ने युवराज की ओर प्रश्नभरी दृष्टि से देखा। युवराज के मन में परिचय प्राप्त करने की बात नाच रही थी। उन्होंने कहा'मालिनी! पहले हम अपने परिचय का प्रश्न समाहित कर लें।' 'परिचय जितना मन से होता है, उतना वाणी से नहीं होता।' मालिनी ने प्रसन्नता से कहा। मंत्रीपुत्र बोल पड़ा-'आपने बहुत अच्छी बात कही, फिर भी वाणी मन का एक वाहन तो है ही!' 'वाणी मन का वाहन है तो दंभ का भी वाहन है। जो वाणी स्वर्ग के सुख तक पहुंचाती है, वही नरक के द्वार तक भी ले जाती है। अब हम चार-पांच दिन साथ ही रहने वाले हैं। मेरे मन का परिचय आपको मिल चुका है, किन्तु आपके मित्र युवराजश्री के मन में कोई संशय न रह जाए, इसीलिए अपना यह प्रवास हो रहा है।' योगिनी ने कहा। "देवी ! मेरे मन में कोई शंका नहीं है। पहली ही दृष्टि में मैं तुम्हारे मनोभाव को जान गया है। युवराज ने कहा। ___ 'मैं धन्य हुई। आप तो जानते ही हैं कि स्त्री अपने प्रियतम के चरणों में अपना शरीर ही अर्पित नहीं करती, वह अपना मन, यौवन, रूप, भावना और सुख-सभी का समर्पण करती है। समर्पण की यह धारा आर्य नारी के प्राणों में ही प्रकट होती है और नारी इस समर्पण का विनिमय नहीं करती।' योगिनी की बातों में युवराज अपने-आपको विस्मृत कर चुके थे। परंतु सुरभद्र ने सोचा, मालवदेश की भावी महारानी होने की योग्यता इस रमणी में हैं। इतनी छोटी उम्र में कोई नवयौवना इतनी गंभीर, सौम्य और समझदार हो ही नहीं सकती। नौका समान गति से आगे चल रही थी। अपराह्न के समय नौका चन्द्र उपवन के पास एक घाट पर पहुंची। योगिनी, मंत्रीपुत्र और युवराज-तीनों नौका से उतरकर चन्द्र उपवन की ओर जाने के लिए आगे बढ़े। चलते-चलते युवराज ने योगिनी की ओर देखकर कहा-'आपको कुछ दूर पैदल चलने में कष्ट तो नहीं होगा?' योगिनी ने हंसते हुए कहा- 'आपने मुझे कोमलांगी मान लिया है?' सुरभद्र बोला- 'देवी कोमलांगी नहीं हैं, ऐसा कौन मान सकता है?' वीर विक्रमादित्य ४१७

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