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'मनमोहिनी देवी की गोद में एक शिशु है।' 'शिशु?' 'हां, पुत्र है। वह कहती है कि मेरे पर भाग्यदेवता प्रसन्न हुए हैं।' 'भाग्यदेवता? कभी नहीं हो सकता....।' 'कृपानाथ! मैंने अपनी आंखों से देखा है।' 'तुझे भ्रम हुआ होगा? 'नहीं, भ्रम नहीं। मैं सच कहती हैं।'
वीर विक्रम दो क्षण मौन रहे, फिर बोले-'तू वहां पहुंच जा। मैं अभी आ रहा हूं।'
दासी मस्तक झुकाकर विदा हो गई। वीर विक्रम ने अजय को रथ तैयार करने की आज्ञा दी।
अर्ध घटिका के पश्चात् वीर विक्रम अजय को लेकर शिप्रातट के उपवन की ओर चले। उनके मन में भारी उथल-पुथल हो रही थी। भूगर्भगृह में से कोई न बाहर आ सकता है और न भीतर जा सकता है, तो फिर मनमोहिनी की गोद में बालक आया कहां से? और यह बालक युवराज का कैसे हो सकता है?
ऐसे अनेक प्रश्नों के बीच वीर विक्रम का मन उलझ गया। स्थ भूगर्भगृह के पास आकर रुका। स्थ की आवाज सुनकर मनमोहिनी प्रसन्न हुई।
नंदा भी आ गई। वीर विक्रम ने कहा- 'नंदा ! बालक के रोने की आवाज तो सुनाई नहीं देती।'
"संभव है, बालक सो गया होगा।'
'हूं!' कहकर महाराज ने ताला खोला। सोपान श्रेणी पार कर नीचे उतरे। भूगर्भगृह में उतरते ही वे स्तंभित रह गए। मनमोहिनी दोनों हाथ जोड़े सामने खड़ी थी। वीर विक्रम को आश्चर्यमग्न देखकर बोली-'पिताजी! अपने पौत्र को निहारेंसुन्दर, तेजस्वी और चंचल भी है।'
इन शब्दों ने मानो विक्रम के गाल पर तमाचा मारा हो, ऐसा लगा। उन्होंने अपनी पुत्रवधू की ओर देखकर कहा- 'मेरा पौत्र ?'
'मैंने आपकी शर्त का पालन किया है!' 'किन्तु यह कैसे हो सकता है?'
'यह प्रश्न मेरे सामने न करें। आप अपने पुत्र से पूछे । मैं अपने कार्य में सफल हुई हूं। अब आप मेरा और अपने पौत्र का हर्षपूर्वक स्वागत करें।'
'मनमोहिनी! इस भूगर्भगृह में एक चिड़िया भी आ-जा नहीं सकती और तुम यहां हो, यह बात विक्रमचरित्र भी नहीं जानता।' ४२२ वीर विक्रमादित्य