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'कौन-सी बात पर ?'
'संभव है योगिनी गुप्त वेश में कोई गुप्तचर हो ।'
'कल उसके निर्मल और सौम्य नयन देखकर तुम ही निर्णय कर लेना ।' 'किन्तु उपवन में जाकर हम करेंगे क्या ?'
'मित्र ! योगिनी के साथ बातें करनी हैं। एक वर्ष से वह पति की खोज में, योगिनी का वेश बना, दर-दर घूम रही है। आठ-दस दिनों से वह यहां आयी हुई है। कुछ ही दिनों पश्चात् उसके संकल्प की अवधि पूरी होने वाली है। इससे पूर्व वह अपने जीवनसाथी को पाने के लिए प्रयत्नशील है। उसने मुझे पसंद किया है । '
'वाह ! यह तो अजब बात है । कोई स्त्री अपने गुमशुदा पति को ढूंढने के लिए इस प्रकार निकले, ऐसी घटनाएं भूतकाल में बहुत हुई हैं। किन्तु जीवनसाथी की टोह में इस प्रकार कोई नवयुवती निकली हो ऐसा मैंने नहीं सुना।'
'मित्र ! इस स्त्री का एक तप है और वह अपने तप में अडिग है।' कहकर युवराज योगिनी के रूप-लावण्य के विचारों में खो गया।
दूसरे दिन प्रात:काल राजघाट पर तीन मंजिलों वाली हंसनौका खड़ी थी। युवराज के लिए सबसे ऊपर की मंजिल निश्चित थी । उसमें सुख-सुविधा की सारी सामग्री थी। दूसरी मंजिल में युवराज के साथी और तीसरी में दास-दासियों के लिए व्यवस्था थी ।
यथासमय युवराज और उसके मित्र नौका में बैठ गए। युवराज ने नौका के मुख्य चालक को एकान्त में बुलाकर कहा - 'रूपनाथ ! हमें चंदनपुर की ओर जाना है, किन्तु अन्तिम घाट पर नौका को कुछ समय के लिए रोकना है । ' 'जी' कहकर रूपनाथ ने मस्तक झुकाया ।
नौका गतिमान हुई ।
अंतिम घाट पर युवराज ने देखा कि योगिनी अपनी एक परिचारिका के साथ खड़ी है। योगिनी की भगवा कंथा सूर्य की किरणों में चमक रही है, क्योंकि वह कंथा कौशेय की थी। युवराज ने अपने मित्र मंत्रीपुत्र से कहा- 'देखो, योगिनी सामने ही खड़ी है। पास में उसकी परिचारिका है।'
मंत्रीपुत्र ने उस ओर देखा । देखते ही उसने सोचा- अरे ! यह तो कोई शापभ्रष्ट देवकन्या ही है ! मानवी में इतना रूप, लावण्य और तेज मिल ही नहीं सकता । धन्य है विधाता के निर्माण को !
नौका घाट पर रुकी ।
युवराज ऊपरी मंजिल से नीचे उतरे और मुस्कराते हुए बोले- 'पधारो,
देवी!'
वीर विक्रमादित्य ४१५