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रात्रि के तीसरे प्रहर में वीर विक्रम रानी सुकुमारी के शयनकक्ष में गए। सोलह वर्षों के पश्चात् यह प्रथम मिलन-यामिनी थी। वीर विक्रम और सुकुमारी के हृदय में अनेक बातें उभर रही थीं।
दोनों एक आसन पर बैठे और सोलह वर्षों में घटित घटनाओं को सुनाने लगे। जैसे नवपरिणित युगल की बातों का अन्त नहीं आता, उसी प्रकार वे दोनों बातें करते हुए अनन्त में खो गए और तब वाद्यमंडली के प्रात:संगीत के स्वर उनके कानों से टकराए।
सूर्योदय हुआ।
देवकुमार ने नगररक्षक को भेजकर चोरी का सारा माल मंगाकर मूल स्वामियों को सौंप दिया। विक्रमगढ़ से अन्यान्य सामान के साथ महामंत्री भट्टमात्र का स्वर्णथाल और रत्नाहार भी आ गए। देवकुमार ने पिताजी की उपस्थिति में महामंत्री के चरणस्पर्श कर दोनों वस्तुएं उन्हें सौंपते हुए कहा- 'मंत्रीश्वर, आपको व्यथित करने के लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं।'
महामंत्री ने उल्लासपूर्वक युवराज को आशीर्वाद दिया। दिन आनन्द में बीतने लगे। माघ शुक्ला पंचमी का दिन।
देवकुमार को युवराज पद देने के लिए राजसभा जुड़ी। इस शुभ प्रसंग पर राजपरिवार के सभी सदस्य, मांडलिक राजा और अन्य राजा भी अपने-अपने दल-बल सहित अवंती में आ गए।
राजसभा का मंडप खचाखच भर गया।
राजपुरोहित ने मंत्रोचारपूर्वक वीर विक्रम के एकाकी पुत्र देवकुमार को युवराज-पद पर अभिषिक्त किया।
महामंत्री ने सुकुमारी के मिलन से लेकर विक्रमगढ़ में आने तथा बुद्धिबल से सभी को चौंका देने वाले देवकुमार के वृत्तान्त से सभी सदस्यों को अवगत कराया।
___ महामंत्री की बात सुनकर सभा में उपस्थित एक चारण कवि का हृदय झनझना उठा। वह बोला-'मालवपति की जय हो! युवराज की जय हो ! युवराज के साहसिक कार्यों की विगत सुनकर मेरा हृदय नाच रहा है। आज तक स्त्री-चरित्र अजोड़ और अद्भुत माना जाता रहा है। किन्तु चपलसेना जैसी बुद्धिमती गणिका को मात कर देवकुमार ने स्त्री-चरित्र को मिट्टी में मिला डाला है। मेरा मन कहता है कि आज ये युवराजश्री विक्रमचरित्र के नाम से जाने जाएं तो अच्छा है। स्त्रीचरित्र को पाताल में पहुंचा देने वाले विक्रमचरित्र की जय हो!' ३६४ वीर विक्रमादित्य