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और देवकुमार ने चपला का मन पूरी तरह से पढ़ लिया।
छह दिन और छह रातें बीत गईं, किन्तु चोर के विषय में कोई समाचार प्राप्त नहीं हुआ। ऐसा लगने लगा कि चोर पाताल में चला गया है अथवा अवंती को छोड़कर भाग गया है।
इन छह दिनों में अनेक संदेहास्पद व्यक्ति पकड़े गए और वे सब कारावास में डाल दिये गए।
चोर को पकड़ने के लिए चपलसेना ने पूरी जोखिम उठाई थी। नगररक्षक ने नगरी में पूरा जाल बिछा रखा था। चपलसेना प्रतिदिन उत्तम वस्त्रालंकारों से सज्जित होकर जयसेन के साथ नगर-भ्रमण के लिए निकल पड़ती थी। जयसेन ने उसके मन में कामना का दीप प्रज्वलित कर दिया था। सतत साहचर्य के कारण चपलसेना के हृदय में इस तरुण युवक के साथ काम-क्रीड़ा करने की भावना तीव्र हो रही थी, किन्तु वह अपने इस मनोभाव को कहने में हिचकती थी। वह कभी जयसेन का हाथ पकड़ लेती, कभी उसके कंधे थपथपाती और कभी-कभी हल्का विनोद भी कर लेती। बातों-ही-बातों में जयसेन ने चपला के भंडार के अनेक रहस्य जान लिये।
सातवें दिन की संध्या आ गई।
जयसेन चपलसेना से पूछकर नगरी में चक्कर लगाने के लिए अकेला ही निकल पड़ा।
चपलसेना मद-भरी दृष्टि से उसे देखती रही।
ओह नारी! तू चतुर है, चपल है और विश्व का आकर्षण है। किन्तु तेरी एक ही दुर्बलता तुझे युगों से छलती रही है। चपलसेना गणिका होने पर भीथी एक स्त्री ही। रंगराग, विलास और अभिनव जीवन के मध्य वह जी रही थी। अनेक प्रकार के पुरुषों को उसने अपने रूपजाल से फंसा लिया था। किन्तु उसके हृदय की दुर्बलता ने आज उसे ही एक जाल में फंसा डाला।
एक तो जयसेन की स्वस्थ और सुन्दर काया, प्रभावशाली आंखें और नवयौवन की निर्दोष मादकता!
चपलसेना अपनी तीस वर्ष की उम्र को भी भूल-सी गई। उसे ऐसा लग रहा था, मानो वह पन्द्रह वर्ष की नवयौवना है और उसके हाथों में आया हुआ जयसेन प्रीति का प्याला है। ऐसा सुन्दर युवक किसी भाग्यवान् नारी को ही मिल पाता है।
सातवां दिन भी खाली गया। चोर का पता नहीं लगा।
चपलसेना ने दासी से पूछा-'अरे, युवराजश्री नगरी का चक्कर लगाने गए थे, अभी तक नहीं लौटे?'
वीर विक्रमादित्य ३६७