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नगररक्षक सिंह देवी चपलसेना के भवन पर आया। वह बोला-'देवी! आप सावधान रहें। चोर कब आ जाए और कब क्या कर बैठे, यह कहना अत्यन्त कठिन है। चोर बहुत ही चालाक और प्रतिशोध भावना से परिपूर्ण है। वह मेरे घर पर चोरी कर एक चिमटा छोड़ गया था। उसका तात्पर्य अब मुझे समझ में आया है। वह यह बता गया कि मैं तुमको एक भिखारी मात्र मानता हूं। तुम मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकोगे। यह चिमटा लेकर बाबाजी बन जाओ और घर-घर भीख मांगते फिरो।'
आज रात को कैसी व्यवस्था करनी है-इस विषय की चर्चा कर नगररक्षक अपने भवन की ओर चला गया।
चपला युवराज के पास आयी और उनके कंधे पर हाथ रखकर बोली'युवराजश्री ! आज तक चोर के कोई समाचार नहीं मिले।'
_ 'संभव है कि वह आपकी शक्ति से पराभूत होकर भाग गया हो अथवा शांत होकर बैठ गया हो।'
'उसे पकड़ने का कोई उपाय ही नहीं सूझ रहा है। मैंने जान-बूझकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है।'
"देवी! निराश न हों। अभी दो दिन-रात बाकी हैं। यदि अभी आप निराश हो जाएंगी तो चोर को पकड़ पाना कठिन होगा। वास्तव में आपके ममतापूर्ण स्वभाव को देखकर मेरा मन होता है कि मैं चोर को पकड़ने के लिए नगरी का कोना-कोना छान डालूं....किन्तु देवी ! मैं क्या करूं? इस नगरी से मैं सर्वथा अपरिचित हूं।'
चपलसेना जयसेन के गाल पर हल्की-सी थपकी देती हुई बोली-'नहीं युवराज! यह काम आपका नहीं। आपकी काया अत्यन्त कोमल है। रात को नींद भी आपने पूरी नहीं ली है। आपका शरीर कुम्हला गया है।' ___'मैं तो यहां निवृत्त-सा रहता हूं। कोई काम-धाम ही नहीं है। भोजन कर सो जाता हूं। किन्तु आपको एक बात माननी होगी।.....'
चपला ने प्रश्न-भरी नजरों से जयसेन की ओर देखा।
'पुरुष-वेश के बदले यदि आप स्त्री के वेश में नगर-भ्रमण करेंगी तो अधिक उपयुक्त होगा। चोर जब आपको स्त्री वेश में देखेगा तो वह निश्चित ही आपका पीछा करेगा अथवा कुछ करेगा। उस समय हम उसका डटकर मुकाबला कर सकेंगे। आपको पुरुष-वेश में देखकर वह यही मानेगा कि कोई सैनिक आ रहा है। वह आपसे छिटक जाएगा।'
__ 'ठीक है, प्रियतम!.....तुम्हारी बुद्धि का लोहा मानती हूं।' चपला भावावेश में बोल उठी। ३६६ वीर विक्रमादित्य