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पत्र को पढ़ते ही चपलसेना पलंग से उठ खड़ी हुई और परिचारिका की ओर देखकर बोली-'युवराजश्री मेरे से मिलने आए और तूने उनको यहां क्यों नहीं आने दिया?'
'देवी! आपने ही तो आज्ञा दी थी.....।'
'किन्तु मेरी आज्ञा तो बाहर वालों के लिए थी.....ओह! युवराजश्री को गए कितना समय हुआ है?'
'लगभग तीन घटिका बीती हैं।'
'जा, उनको खोजने के लिए चार रक्षकों को भेज और उनसे कह दे कि जहां भी युवराजश्री मिलें, उन्हें अपने साथ यहां ले आए। आज मैं कहीं नहीं जाने वाली थी, किन्तु अब मुझे नगरभ्रमण के लिए जाना ही पड़ेगा।'
मुख्य परिचारिका प्रणाम कर खंड के बाहर चली गई।
आज चपला को दोहरी निराशा का सामना करना पड़ रहा था। एक ओर यह घोर निराशा उसे झकझोर रही थी कि चोर नहीं मिला और राजराजेश्वर के समक्ष उसे नीचा देखना पड़ेगा। दूसरी निराशा यह हुई कि एक रूपवान् नौजवान जो प्राप्त हुआ था, जिसमें समाकर मैं अपने दु:ख को भूल जाना चाहती थी, जिसके आलिंगन में बद्ध होकर मैं अपूर्व आनन्द का अनुभव करना चाहती थी, वह सुन्दर कामदेव-सा युवक मेरे हाथ से निकल गया। काश! मैं.....
रात्रि का दूसरा प्रहर पूरा हुआ।
चपलसेना वेश-परिवर्तन कर जयसेन को खोजने के लिए नगरी में निकल पड़ी। रात्रि के तीसरे प्रहर तक भी जयसेन नहीं मिला। वह उसकी खोज में घूमती रही। चौथा प्रहर पूरा होने वाला था। चपलसेना निराश होकर भवन लौट आयी।
सारे नगर में चपलसेना के ठगे जाने की बात हो रही थी। यत्र-तत्र-सर्वत्र चोर सर्वहर की चर्चा हो रही थी। सभी आश्चर्यचकित थे। सभी राज्याधिकारी तथा स्वयं वीर विक्रमादित्य भी चोर को पकड़ने के लिए नये-नये उपाय सोचने लगे। पर कोई भी उपाय कारगर नहीं हो रहा था। सभी चिन्तित थे।
उसी दिन राजसभा जुड़ी और उसमें महामंत्री भट्टमात्र ने कहा'मैं तीन दिन के भीतर-भीतर चोर को अपने जाल में फंसा लूंगा। चोर को अन्य उपायों से नहीं पकड़ा जा सकता। वह बुद्धिमान् है। उसको बुद्धिमत्ता से ही पकड़ा जा सकता है। मैं मानता हूं कि चोर सर्वहर अभी हमारे मध्य बैठा होगा। मैं उसे चुनौती देता हूं कि वह मेरे भवन में आए और मेरे कक्ष में एक त्रिपदी पर रखे स्वर्णथाल में रखी हुई नीलम की मुक्तामाला उंठा ले जाए; अन्यथा वह अपनी पराजय स्वीकार कर अपना चोरी का धंधा छोड़ दे। बुद्धि के मैदान में आने का निमंत्रण मैं चोर को देता हूं। वह आए और मेरे पर विजय प्राप्त करे।'
३७६ वीर विक्रमादित्य