Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 378
________________ गंध्रपी श्मशान की ओर जाने वाले मार्ग पर आते ही देवकुमार बोला-'देवी! क्या यहां कोई सुरक्षित स्थान है?' 'क्यों?' 'हम अपने अश्वों को सुरक्षित स्थान पर बांधकर चलें।' 'नहीं, प्रिय ! श्मशान यहां से एक कोस की दूरी पर है। बीच में कालभैरव की ओर जाने वाली पगडंडी आएगी। वहीं हम अपने अश्वों को बांध देंगे।' चपला ने कहा। 'अच्छा, किन्तु अपने अश्वों की आवाज मंदिर तक नहीं पहुंचनी चाहिए....।' 'आप बहुत सावचेत हैं। यदि आपका सहयोग नहीं मिलता तो मैं निराश हो जाती।' चपला ने कहा। मार्ग जनशून्य था। गंध्रपीश्मशान की ओर जाने में साहसी व्यक्ति भी कांप उठते थे और मध्यरात्रि में वहां जाने का साहस कौन करे? जयसेन ने पूछा- 'देवी ! मैंने सुना है कि यह श्मशान बहुत चामत्कारिक है। क्या यह सच है?' 'हां, प्रिय! अवंती का यह श्मशान बहुत चामत्कारिक है। यह भूत, प्रेत, शाकिनी, व्यंतर आदि का वास-स्थान है। पांच-दस व्यक्ति मिलकर ही यहां आने का साहस करते हैं।' "आपने देखा है?' 'हां, दो-चार बार मैं यहां आयी हूं। श्मशान से कुछ ही दूरी पर कामदेव का एक प्राचीन मंदिर है। हमारा गणिका समाज उसका आराधक है। इसलिए प्रत्येक गणिका यहां आती-जाती रहती है। किन्तु रात में यहां कोई नहीं आता।' 'देवी! मन में किसी प्रकार का भय तो नहीं है?' 'आप-जैसे धनुर्धर के साथ होते भय किस बात का?' जयसेन कुछ नहीं बोला। वे दोनों आगे बढ़ते गए। एक स्थान पर आकर चपलसेना बोली- 'यह स्थान अश्वों के लिए सुरक्षित है। हम यहां अश्वों को बांध कालभैरव मंदिर की ओर चलें।' चलते-चलते चपलसेना का मन अधीर हो उठा। रात्रि का समय, नौजवान का सहवास । उसका मन हुआ कि वह जयसेन से लिपट जाए, पर.... दोनों काली चादर ओढ़े आगे बढ़ रहे थे। चपलसेना ने जयसेन का हाथ पकड़ रखा था। कुछ दूर जाने पर जयसेन बोला- 'देवी! हम मार्ग भूल गए हों, ऐसा लग रहा है। रात्रि का तीसरा प्रहर पूरा होने वाला है।' वीर विक्रमादित्य ३७१

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