Book Title: Veer Vikramaditya
Author(s): Mohanlal Chunilal Dhami, Dulahraj Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 362
________________ बात सुनकर दोनों आश्चर्य-विमूढ़ हो गए। महामंत्री बोले-'कृपानाथ! चोर बहुत चालाक है। आप अग्निवैताल को एक बार याद करें।' 'महामंत्री! क्या राज्य की शक्ति खत्म हो गई है कि हमें एक चोर को पकड़ने के लिए इस प्रकार परेशान होना पड़े? अग्निवैताल को मैंने मुक्त कर दिया है। वह अभी आ नहीं सकता। चोर कितना ही चालाक या मंत्रवादी क्यों न हो, आखिर है तो वह एक मनुष्य ही। फिर नगररक्षक की ओर देखकर कहा-राजभवन में चोरी हो जाए यह कोई छोटी बात नहीं है। यह बात जब नगर में फैलेगी, तब जनता कितनी भयभीत हो जाएगी। तुम खोज में लगो।' राजा विक्रम ने अनेक उपाय सोचे और नानाविध प्रयत्न करने का निश्चय किया। सारी नगरी में यह बात प्रसारित हो गई कि राजभवन में भी चोर घुसकर अपनी करामात दिखा गया है। दूसरे दिन वीर विक्रम ने राजसभा में घोषणा कराई कि जो कोई व्यक्ति चोर को पांच दिनों के भीतर जीवित या मृत मेरे सामने उपस्थित करेगा, उसे पांच गांव पारितोषिक रूप में दिए जाएंगे। नगररक्षक सिंहदत्त ने खड़े होकर कहा-'कृपानाथ! पांच दिनों के भीतरभीतर मैं चोर को राजसभा में उपस्थित कर दूंगा।' सभासदों ने हर्षध्वनि की। किसान वेश में आया हुआ देवकुमार हंसने लगा। सारी नगरी में नगररक्षककी बात फैल गई। देवकुमार ने नगररक्षक के परिवार की बात जाननी चाही। उसने अपने मित्र माली से पूछा-'मित्र! नगररक्षक के परिवार में कौन-कौन हैं?' 'महाराज! उसकी जानकारी क्यों करना चाहते हैं? वह अब चोर को पकड़कर ही सांस लेगा। आप जानकारी करना चाहेंगे तो संभव है वह आप पर ही चोर होने की आशंका कर आपको कारागृह में न ढकेल दे। वह नगररक्षक केवल बलवान् ही नहीं है, वह चतुर और चपल भी है।' "मित्र! मैं तो ऐसे ही जानकारी करना चाहता हूं। मुझे नचोर से कोई प्रयोजन है और न नगररक्षक से।' देवकुमार ने कहा। अपराह्न के समय देवकुमार ने एक नौजवान माली का वेश बनाया। उसने एक टोकरी में कुछ फूल और मालाएं रख लीं। वह रास्ते पर जा रहा था। सामने से दो सैनिक मिले। एक ने पूछा-'अरे ओ! कहां से आया?' 'मैं माली हूं और उस उपवन से आ रहा हूं।' वीर विक्रमादित्य ३५५

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