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सैनिकों ने उसे एड़ी से चोटी तक देखा और आगे बढ़ गए। चार दिन बीत गए।
देवकुमार शान्त रहा। चार दिनों तक चोरियां नहीं हुईं, तब पौरजनों ने जाना कि चोर घबराकर भाग गया है। नगररक्षक ने बीस संदेहास्पद व्यक्तियों को बन्दी बनाकर कारावास में डाल दिया था। उसने सोचा, इनमें से ही कोई-नकोई चोर होना चाहिए। वह चिन्तित था। चार दिन खाली गए।
सांझ हुई। नगररक्षक घोड़े पर बैठकर चोर की तलाश में घर से निकल पड़ा। घर के आगे का फाटक बन्द कर दिया गया। रात्रि का प्रथम प्रहर पूरा हुआ। देवकुमार एक बाबे का वेश बनाकर तैयार हो गया। उसने कंधे पर एक थैला रखा। उसमें बहुविध सामान था। देवकुमार निर्भयतापूर्वक नगररक्षक के भवन की ओर चल पड़ा। सामने से चार सैनिक आते हुए दिखाई दिए। वे पास से बातचीत करतेकरते निकल गए। देवकुमार अदृश्य था।
देवकुमार नगररक्षक के भवन की चारदीवार के निकट पहंच गया। चारों ओर घूमकर, एक स्थान पर उसने दीवार फांद कर भीतर प्रवेश कर लिया।
उसने देखा बरामदे में तीन व्यक्ति गहरी नींद में सो रहे हैं। वह तत्काल वहां पहुंचा और संमूर्छन चूर्ण की चुटकी भर उनकी नाक पर डाल दी।
देवकुमार निश्चिंत हो गया। उसने एक कमरा खोला। वहां एक दीपक टिमटिमा रहा था। उसके मंद प्रकाश में उसे तीन-चार मजबूत मंजूषाएं दीख पड़ी। देवकुमार ने एक पेटी खोली। उसमें वस्त्र थे। उसने सारे वस्त्र बाहर निकालकर रख दिए। सबसे नीचे स्वर्ण-अलंकारों से भरी एक छोटी पेटिका मिली। उसने वह पेटिका अपनी झोली में रख ली। दूसरी पेटी में स्वर्णमुद्राओं की पांच थैलियां मिलीं। उनको भी अपनी झोली में रख लिया।
देवकुमार कक्ष के कपाट पूर्ववत् बंदकर बाहर निकाल गया। वह अपने निवासस्थान पर सुरक्षित पहुंच गया और एक मटके में सारा सामान रख, उस पर नगर-रक्षक का नाम अंकित कर जमीन में गाड़ दिया।
नगर-रक्षक चोर की टोह में नगरी में चक्कर लगा रहा था। वीर विक्रम भी वेश-परिवर्तन कर एक प्रहर तक नगर में घूमते रहे। प्रात:काल हुआ। नगररक्षक अपने भवन पर आया। मुख्यद्वार-रक्षक ने फाटक खोला। एक सेवक ने अश्व को पकड़ लिया और सिंह विश्राम करने के लिए भीतर गया। भीतर प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि एक ओर पड़े चिमटे पर पड़ी। वह चौंका। उसका मन भय से भर गया। वह कमरे के पास आया। ताला खुला पड़ा था। अन्दर जाकर देखा तो दोनों मंजूषाएं खुली पड़ी थीं और कपड़े बाहर बिखरे हुए थे।
३५६ वीर विक्रमादित्य