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वास्तव में नायक थककर चूर हो गया था। वह असमंजस में पड़ गया था। नायक ने कुछ विश्राम किया और पुन: कोड़े मारने का निश्चय कर उठा। उसने अपना कोड़ा उठाया, इतने में ही महाराज वीर विक्रम का जय-जयकार सुनाई दिया।
महामंत्री के साथ वीर विक्रम मंदिर के गर्भगृह में प्रविष्ट हुए और पवित्र शिवलिंग की ओर पैर कर सोये हुए संन्यासी की ओर देखा। महामंत्री ने भी उस
ओर दृष्टि की। वीर विक्रम ने नायक से कहा-'अब तुम रहने दो। मैं स्वयं बाबाजी को समझाऊंगा।'
वीर विक्रम बाबाजी के मस्तक की ओर उकडूं आसन में बैठकर बोले'महात्मन् ! कृपा कर आप उठें और आपकी जो इच्छा हो, वह प्रकट करें-आप इस प्रकार महाकाल की आशातना क्यों कर रहे हैं ? आप जैसे अवधूतों को तो महाकाल की अर्चना करनी चाहिए।'
ये अवधूत और कोई नहीं, महाज्ञानी आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ही थे। दाढ़ी और मस्तक के बाल बढ़ जाने और बारह वर्ष का वनवास भोगने के कारण उनको पहचान पाना कठिन हो गया था। गुरुदेव द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त को वहन करते हुए वे बारह वर्षों से वन-प्रदेश में घूमते हुए अवधूत की वेशभूषा में आराधना कर रहे थे। अब बारह वर्ष पूर्ण हो रहे थे। वे किसी राजा को पुन: प्रतिबोधित कर गुरुदेव के समक्ष जाना चाहते थे। वे वीर विक्रमादित्य को बोधी प्राप्त कराने की इच्छा से अवंती में आए थे।
वीर विक्रम के वचन बाबाजी के कानों में पड़े। उन्होंने मृदुता से आंखें खोली और कहा- 'राजन् ! मैं महादेव की आशातना करना नहीं चाहता, किन्तु स्तुति करना चाहता हूं, पर वे मेरी स्तुति को सहन नहीं करेंगे।'
वीर विक्रम बोले-'महात्मन्! आप तो महान् योगी हैं। आपकी स्तुति भगवान् महाकाल क्यों नहीं सहन करेंगे?'
'राजन् ! मेरी स्तुति अजब है। संभव है, उसके प्रभाव से यह लिंग अदृश्य हो जाए और इसके स्थान पर कोई दूसरी....।'
तत्काल मुख्य पुजारी बोला-'न भूतो न भविष्यति। आप हमें यह भय न दिखाएं।' राजा ने सोचा-यह योगी झूठा भय तो नहीं दिखा रहा? अपना महत्त्व बढ़ाने के लिए ऐसी बातें तो नहीं कर रहा?
वीर विक्रम ने कहा-'योगीश्वर! आप अपनी स्तुति प्रारंभ करें हम आपके चमत्कार का दर्शन करेंगे।'
दूसरे ही क्षण बाबाजी खड़े हो गए।
वीर विक्रमादित्य ३३५