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रात्रि के अंतिम प्रहर में नगररक्षक सिंहदत्त नगरसेठ के भवन पर आया । उसके रक्षक पहरे पर सजग थे। सिंहदत्त ने उस रक्षक-टुकड़ी के सरदार से पूछा'क्या रात में कुछ घटित हुआ था ?'
'नहीं, महाराज! कुछ भी नहीं हुआ। इतने पहरेदारों के रहते यहां आने का साहस कौन कर सकता है ?' भीतर भी रक्षक जागते बैठे थे।
'अच्छा', कहकर सिंहदत्त ने चारों ओर देखा और अपने गन्तव्य की ओर चला गया।
इधर देवकुमार अपने निवासस्थान पर पहुंचा और नगरसेठ के रत्नालंकार एक मटके में रखकर, उस पर कपड़ा बांध 'नगरसेठ का माल' अंकित कर एक ओर जमीन में गाड़ दिया ।
प्रात:काल हुआ । वीर विक्रम प्रातः कर्म की तैयारी कर रहे थे। उस समय सिंहदत्त ने आकर कहा - 'कृपानाथ ! नगरसेठ के भवन में रात को कुछ भी नहीं हुआ । '
'तुमने पता किया था ?'
'हां, मैं रात्रि के अंतिम प्रहर में गया था। सबको पूछा था, और सभी ने यही कहा कि रात को कुछ भी घटित नहीं हुआ ।'
'अच्छा, तो प्रतीत होता है किसी ने परिहास किया है', वीर विक्रम इस वाक्य को पूरा करें, उससे पूर्व ही एक परिचारिका ने आकर कहा - 'कृपानाथ की जय हों'
'क्यों?'
'महाराज नगरसेठ के ज्येष्ठ पुत्र आपसे मिलने आए हैं।'
'उनको आदर सहित यहां ले आओ।' विक्रम ने कहा ।
नगरसेठ का ज्येष्ठ पुत्र दासी के साथ आ पहुंचा। वीर विक्रम ने उसे आदर सहित बिठाते हुए पूछा - 'अभी कैसे आना हुआ ?'
'कृपानाथ! चोर अपना काम कर गया । हमारे भण्डार से चोरी
हो गई।'
'चोरी हो गई ?'
'हां, किन्तु कितना धन चुराया गया, इसका अभी तक पता नहीं लगा है।' नगरसेठ के पुत्र ने कहा। विक्रम अवाक् रह गया। उन्होंने सिंहदत्त को बुलाकर नगरसेठ के भवन पर जाने के लिए कहा।
देवकुमार भी प्रात: कर्म से निवृत्त होकर नगरचर्चा जानने के लिए नगरी में गया। स्थान-स्थान पर नगरसेठ के भवन में हुई चोरी की चर्चा चल रही थी। लोग
३५० वीर विक्रमादित्य