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विक्रम ने कलिका की ओर देखकर कहा-'देवी! मैं एक विशेष प्रयोजन से यहां आया हूं। मेरे मन में एक ऐसी जिज्ञासा जागी है कि मुझे पलभर भी विश्राम नहीं मिल रहा है। मुझे स्त्री-चरित्र को जानने की जिज्ञासा है और मैं इसे अपने नयनों से देखना चाहता हूं। मैंने सुना है कि आप ही मेरी जिज्ञासा को शांत कर सकती हैं, दूसरा कोई नहीं।'
दो क्षण विचारमग्न होकर कलिका बोली- 'महाराज! स्त्री-चरित्र से दूर रहना ही अच्छा है। आप अपनी जिज्ञासा को निकाल दें। स्त्री-चरित्र देखने के पश्चात् आपको अत्यधिक पीड़ा होगी, पश्चात्ताप होगा।'
'देवी! मेरा हृदय जितना कोमल है, उतना कठोर भी है। आप मेरी जिज्ञासा को पूरी करने का प्रयत्न करें।'
'कृपानाथ! आपकी आज्ञा मान्य करना मेरा परम धर्म है। स्त्री-चरित्र बहुत कुटिल होता है। उसका पार कोई नहीं पा सकता। फिर भी आपकी जिज्ञासा को शांत करने का मैं प्रयत्न करूंगी। एक प्रश्न है, क्या आप बाहर का स्त्री-चरित्र जानना चाहते हैं अथवा अपने ही अन्त:पुर का?'
विक्रम अन्त:पुर का नाम सुनते ही चौंके और आसन से उठते हुए बोले'क्या मेरे अन्त:पुर में स्त्री-चरित्र है?'
'महाराज! आपका अन्त:पुर संसार से निराला नहीं है। जहां स्त्रियां रहती हैं, वहां स्त्री-चरित्र भी होता है।'
विक्रम पुन: आसन पर बैठते हुए बोले- 'देवी ! मेरी सभी पत्नियां पवित्र. निर्मल, धर्मपरायण और पातिव्रत धर्म को प्राणों से भी अधिक मूल्यवान मानने वाली हैं। मेरे अन्त:पुर में स्त्री-चरित्र का अवकाश भी नहीं है।'
'तो मैं आपकी इस श्रद्धा को खंडित करना नहीं चाहती। मैं आपको दूसरी स्त्रियों का स्त्री-चरित्र दिखा दूंगी।' कलिका ने कहा।
विक्रम बोले- 'नहीं, देवी! मुझे तो अपने ही अन्त:पुर का स्त्री-चरित्र जानना है।'
'कृपानाथ! यह मैं आपको आज ही बता दूंगी। किन्तु आपको मुझे एक वचन देना होगा।'
'बोलो!'
'जो कुछ भी आप देखेंगे, उसे मन में ही रखेंगे। क्रोध के आवेश में कुछ भी नहीं करेंगे।'
'देवी ! मैं एक राजा हूं....यदि क्रोध को न पचा सका तो?'
'तो फिर स्त्री-चरित्र को देखने का आग्रह छोड़ दें, क्योंकि इस पक्ष में मैं भी कुछ सहयोगी बनूंगी।'
वीर विक्रमादित्य ३१६