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'महाराज! इस विषय में आप चिन्तित न हों। स्त्री में कामवासना अधिक होती है और लज्जा भी विशेष होती है। जब वह लज्जा का त्याग कर देती है, तब उसे कुछ भी भान नहीं रहता और यह सच है कि कामान्ध व्यक्ति वय, रूप आदि का ध्यान नहीं रखता।'
'ओह देवी! मैंने अपनी जिज्ञासा शांत कर ली। अब तुम वह माला मुझे दिखाओ, जो तुमको ज्ञानचन्द्र से मिली है।'
कलिका ने वह मुक्तामाला विक्रम के हाथ में दी।
विक्रम ने माला को देखकर कहा-'ओह ! यह तो वही माला है, जो मैंने मंजरी को दी थी। दुष्टा मंजरी ने अपने प्रियतम से प्राप्त उपहार की भी इज्जत नहीं रखी?'
'कृपानाथ! क्रोध न करें। संसार में ऐसा होता रहा है।' __ 'देवी ! नारी को नारायण भी नहीं पहचान सकते। यदि तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो मैं इस मुक्तामाला को साथ ले जाऊं। दो-तीन दिन बाद महाप्रतिहार तुम्हें लौटा देगा।'
'कृपानाथ! यह मुक्तामाला आपकी ही है, प्रसन्नता से ले जाएं। परन्तु ऐसा कोई कदम न उठाएं जिससे आपकी कीर्ति में आंच आए। आपने जो वचन मुझे दिया है, उसको न भूलें।
विक्रम ने कलिका की ओर देखकर कहा- 'देवी ! मैं तुम्हारा आभार मानता हूं। मैंने जो वचन दिया है, वह अन्यथा नहीं होगा। किसी का वध तो नहीं करूंगा, किन्तु इन दुष्टों को अपनी नगरी में नहीं रखेंगा।'
___ 'कृपानाथ! यह मेरा व्यवसाय है। फिर भी मैंने आपका अपराध किया है। यदि मैंने ज्ञानचन्द्र का सहयोग न किया होता तो ऐसा नहीं बनता।'
'देवी! तुम तो केवल निमित्त बनी हो। एक बात मैं अवश्य कहना चाहता हूं कि तुम इस व्यवसाय को तिलांजलि दे दो। धन के लिए ऐसा करना उचित नहीं है। धन नाशवान् है।'
कलिका बोली- 'कृपानाथ! आपके चरणों की साक्षी से प्रतिज्ञा करती हैं कि मैं आज से ऐसे जघन्य कर्म नहीं करूंगी। महाराज ! मुझे उत्तम जैनधर्म मिला, फिर भी उसकी उपेक्षा कर मैंने इस मायाजाल में अपने आपको फंसा डाला।'
विक्रम ने कहा- 'देवी! तुम ज्ञानी हो। ज्ञानी को समझने में विलम्ब नहीं लगता। अब प्रात:काल होने ही वाला है। मुझे यहां से विदा हो जाना चाहिए।'
कलिका ने भाव-भरे स्वरों में कहा- 'कृपानाथ! पारसमणि के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है। आपको स्त्री-चरित्र की जानकारी कराते हुए मेरा स्त्रीचरित्र भी सदा के लिए नष्ट हो गया। आज मैं आपके दर्शन से पवित्र हुई हूं।'
वीर विक्रमादित्य ३२५