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'यह व्यवस्था मैं करता हूं.. नागकुमार के रूप में बदल दूंगा।'
.... मैं नागकुमार को छिपा दूंगा और आपको
विक्रम ने स्वीकृति दी और तीनों दंड वैताल को सौंप दिए । नागकुमार वर के वेश में तैयार हो रहा था .... एक अश्व भी सज्जित हो
रहा था ।
वैताल ने अपनी माया से नागकुमार को दो क्षणों में ही छिपा दिया और विक्रम को नागकुमार के रूप में बदल दिया।
विक्रम घोड़े पर बैठा। शोभायात्रा चल पड़ी।
वैताल अदृश्य रूप में साथ ही चल रहा था।
स्नान-शुद्ध होकर तीनों सखियां उस स्थान पर पहुंची, जहां बटुक को बिठाया था, किन्तु वहां कुछ भी न देखकर वे घबरा गईं। उन्होंने चारों ओर देखा, इधर-उधर दौड़-धूप की, पर व्यर्थ। उन्हें करंडक के गुम हो जाने की चिन्ता नहीं थी, किन्तु तीनों चामत्कारिक दंडों की चोरी से वे अस्त-व्यस्त हो गईं। उन्होंने सोचा - संभव है, बालक कुतूहलवश इसी मार्ग से भीतर चला गया हो। और तब वे भी उसी मार्ग से पाताललोक की ओर चलीं ।
जब शोभायात्रा एक बाजार से गुजर रही थी, तब तीनों सखियां वहां आ पहुंची और बटुक को खोजने लगीं। किन्तु बटुक कहीं दिखाई नहीं दिया। अब क्या किया जाए? उनका मन दंडों के खो जाने के अनुताप से भर गया ।
वैताल ने तीनों सखियों को देख लिया और उसके मन में विनोद करने का भाव जागा । उसने अश्व पर बैठे हुए वीर विक्रम के कान में कहा - 'महाराज ! सामने देखें, तीनों सखियां आ गई हैं।'
विक्रम ने उस ओर देखा । तीनों सखियों ने स्वाभाविक रूप से अपने सखी के पति को देखने के लिए नागकुमार की ओर दृष्टि डाली..... और तीनों चौंक पड़ी। नागकुमार के बदले उन्हें दरिद्र बटुक दिखाई दिया ।
यह कैसा आश्चर्य ? यह इन्द्रजाल है अथवा नागकुमार की माया ? तीनों सखियां वहां से नागकन्या के भवन की ओर गईं। वहां भी नाग-जाति के अनेक स्त्री-पुरुष एकत्रित थे । वे सब वर के स्वागत के लिए लालायित हो रहे थे । कुछ ही समय पश्चात् शोभायात्रा पहुंची। कन्या - पक्ष ने वर-पक्ष वाले सभी व्यक्तियों का आदरपूर्वक स्वागत किया ।
विवाह की तैयारी हो चुकी थी । वर को विवाह की वेदी पर ले जाया गया। अब विक्रम अकुलाए और वैताल को याद किया। वैताल ने अदृश्य रूप से विक्रम के कान में कहा- 'क्या आज्ञा है ?'
वीर विक्रमादित्य ३११