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राजकन्या बोली- 'महाराज ! मैंने मन में यह संकल्प कर रखा था कि जो वीर पुरुष मुझे इस राक्षस से मुक्त कराएगा, उस वीर पुरुष के चरणों में मैं अपना सर्वस्व समर्पित करूंगी। आज आपने मुझे मुक्ति दिलाई है। आप मेरे स्वामी हैं।'
विक्रम बोला- 'चन्द्रावती! यह तुमने क्या किया ? मेरे भवन में अनेक रानियां हैं और मैं अपने जीवन की सदा बाजी लगाता रहता हूं।'
चन्द्रावती प्रसन्न दृष्टि से विक्रम की ओर देखने लगी। वीर विक्रम बोला-'तुम्हारे माता-पिता कहां हैं?' 'यहां से दस कोस की दूरी पर सारस्वतपुर नाम के एक नगर में हैं।' वीर विक्रम ने तत्काल अपने मित्र अग्निवैताल को याद किया। उसी क्षण वैताल उपस्थित होकर बोला-'महाराज! क्या आज्ञा है?' विक्रम बोला-'मित्र! इस ओर देखो।'
अग्निवैताल ने राक्षस के निर्जीव शरीर को देखकर कहा-'महाराज! आपने महान् उपकार किया है। मैं इस राक्षस को जानता हूं। कालदंड नाम का यह राक्षस अत्यन्त क्रूर और निर्दयी है। वज्रदंड को प्राप्त करने के पश्चात् यह देवताओं को भी परेशान करता था। यह नवयौवनाओं के शील को भंग करता था या उनको मार डालता था। महाराज, निश्चित ही आपने मानवजाति पर महान् उपकार किया है।'
'मित्र ! मैं अपना कर्तव्य पूरा करता हूं, किसी पर उपकार नहीं करता। अब तुम इस राजकन्या के माता-पिता, दास-दासी को यहां ले आओ और जनशून्य नगरी को पुन: आबाद करने के लिए राक्षस के मारे जाने की बात प्रसारित कर दो।'
'महाराज ! मैं अभी आपकी आज्ञा का पालन करता हूं, किन्तु महाराज! आप जिस प्रयोजन के लिए निकले हैं, उसकी सिद्धि.....'
___ 'हां, मित्र! दो दंड मिल गए हैं। एक है सर्वरस दंड और दूसरा है वज्रदंड। तीन दंड और प्राप्त करने हैं। आशा है मैं अपने प्रयोजन में सफल होऊंगा।'
अग्निवैताल तत्काल अदृश्य हो गया।
वीर विक्रम ने राजकन्या की ओर देखकर कहा-'चन्द्रावती! कुछ ही समय के बाद तुम्हारे माता-पिता यहां पहुंच जाएंगे। मैं पहले अपने साथियों को यहां ले आता हूं-राजा का अतिथि-गृह किस ओर है ?'
_ 'महाराज! आप अपने साथियों के साथ राजभवन में पधारें, किन्तु मैं यहां अकेली कैसे रह सकूँगी?'
विक्रम ने हंसकर कहा- 'चन्द्रावती ! अब राक्षस पुन: जीवित नहीं होगा। भय किसका?'
२६८ वीर विक्रमादित्य