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ये शब्द सुनकर राक्षस भयंकर अट्टहास कर बोला-'शाबाश! खटमल के भी मूंछे आ गई लगती हैं। अरे, तू मेरा दंड मुझे सौंपकर घर चला जा, अन्यथा चुटकी बजे उतने समय में मैं तुझे पीसकर खा जाऊंगा।'
'युद्ध के लिए तैयार हो जा।' कहकर वीर विक्रम ने अपने हाथ में पकड़े हुए वज्रदंड को घुमाया।
राक्षस भय से कांप उठा। उसने विकराल रूप धारण किया।
वीर विक्रम खिलखिलाकर हंस पड़ा। उसको वज्रदंड की शक्ति का परिचय नहीं था, फिर भी उसने उस दंड को एक बार भूमि पर पटका और राक्षस की छाती धड़कने लगी। वीर विक्रम की कठिनाई यह थी कि उसके पास कोई शस्त्र नहीं था। राजकन्या ने विक्रम की कठिनाई भांपली। उसने अपनी आत्महत्या के लिए छिपाई हुई तलवार गादी के नीचे से निकालकर विक्रम की ओर फेंकी। विक्रम ने तलवार थाम ली-एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में वज्रदंड।
__ राक्षस ने भी अपनी माया से एक तलवार धारण की। वह जोर से हुंकार कर बोला-'अरे अभिमानी लड़के! तू कोई नया खिलाड़ी लगता है। क्या तेरे कोई घर-बार नहीं है, अन्यथा तू मेरे सामने तलवार उठाने की हिम्मत नहीं करता!'
_ 'ओ दुष्ट कायर! पापी! अबला पर जुल्म करने वाले जुल्मी! तुझे शर्म नहीं आती? लगता है तू मुझे नहीं जानता। मैं अवंती का विक्रमादित्य हूं। खर्परक जैसे देवी-रक्षित चोर को मैंने मारा है। असुर-देवों में श्रेष्ठ अग्निवैताल मेरा परम मित्र है। आज मैं तेरा काल बनकर आया हूं। तू अब मेरे साथ लड़ने के लिए तैयार हो जा।' कहकर विक्रम ने तलवार ऊंची उठाई।
दोनों के बीच युद्ध होने लगा। राक्षस अपना वज्रदंड पुन: प्राप्त करने का भरसक प्रयत्न कर रहा था। वह जानता था कि वज्रदंड के प्रहार से उसकी मौत निश्चित है।
राजकन्या चन्द्रावती एक राक्षस और एक मनुष्य के मध्य होने वाले युद्ध को कुतूहल से देख रही थी। वह आश्चर्यचकित थी। विक्रम दांव-पेंच से राक्षस को छका रहा था। अन्त में विक्रम ने उस राक्षस के मस्तक पर वज्रदंड का प्रहार किया और उसी क्षण राक्षस निर्जीव होकर धड़ाम से भूमि पर गिर पड़ा।
वीर विक्रम ने अपने कपाल पर छलकने वाले स्वेद बिन्दुओं को उत्तरीय के पल्ले से पोंछा।
राक्षस को मरा जानकर राजकन्या बहुत हर्षित हो उठी। वह बोली-'स्वामी!' विक्रम इस शब्द से चौंक उठा और राजकन्या की ओर देखने लगा।
वीर विक्रमादित्य २६७