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लक्ष्मी ने वैसा ही किया। फिर वह शीघ्रता से सोपान श्रेणी उतरने लगी। उसी समय रूपश्री और मदनकुमार सामने से आते दिखाई दिए। मदन चार-पांच सोपान चढ़ा था। लक्ष्मी को देखते ही बोला- 'रूपश्री! पक्षी बहुत सुन्दर है।।
उसी समय लक्ष्मीवती ने उसे जोर से लात मारी। वह संभल नहीं सका, नीचे गिर पड़ा।
रूपश्री का चेहरा रोष से तमतमा उठा। लक्ष्मी बोली- 'मां! मैं यहां किसी भी प्रकार से रह नहीं पाऊंगी। मेरी पेटी में अमूल्य रत्न हैं। उनका मूल्य करोड़ों स्वर्णमुद्राओं में है। यह पेटी आप रखें और मुझे 'काष्ठभक्षण' का अवसर दें। मैं अपने शील को प्राणों से भी अधिक मूल्य देती हूं।'
मदन खड़ा हो गया था। उसने रूपश्री के सामने देखकर कहा-'रूपश्री! इस बला को 'काष्ठभक्षण' करने दे। यह शिर-शूल तेरे लिए अनेक कठिनाइयां पैदा कर देगा।'
रूपश्री ने सोचा, इस युवती को संभालना सहज नहीं है और यदि मेरे भवन में आत्महत्या करेगी तो भारी विपत्ति आ जाएगी। वह बोली-'लक्ष्मी! क्या तू वास्तव में ही 'काष्ठभक्षण' करना चाहती है?'
'हां, मां!'
'अच्छा, मैं तुझे अच्छे वस्त्र देती हूं। तूपहनकर तैयार हो जा।' फिर मदन की ओर देखकर कहा-'कुमार! तुम वाद्यमंडली को बुला लाओ-पालकी तो मेरे यहां है ही।'
मदन एक बार लक्ष्मी की ओर देखकर चला गया।
रूपश्री ने लक्ष्मी को नीचे के एक खंड में बिठाकर कहा- 'तूने कुछ खाया या नहीं?
'नहीं, मैं कुछ नहीं खाऊंगी।'
'अच्छा, तू मेरे साथ वस्त्रगृह में चल । तुझे जो वस्त्र अच्छे लगें, उन्हें पहन लेना, किन्तु एक बार तेरी रत्नपेटिका को खोलकर तो देख लूं', कहकर उसने उसी खंड में रखी हुई रत्नपेटिका बाहर निकाली और उस पर बंधी हुई कौशेय की डोरी निकालकर पेटी खोली। पेटी में पड़े रत्न सूर्य-चन्द्र की तरह चमकने लगे। रूपश्री ने सोचा-लक्ष्मी 'काष्ठभक्षण' करे, यही हितकर है। ये रत्न तब मेरे हो जाएंगे। यह सोचकर उसने पेटी बन्द कर ऊपर से डोरी बांध दी। फिर वह पेटी और लक्ष्मी को लेकर वस्त्रगृह में गई और लक्ष्मी से कहा- 'बेटी ! जो वस्त्र तुझे अच्छे लगें, वे धारण कर ले।'
'मां! मेरे ये पहने हुए वस्त्र अच्छे हैं। दूसरे के धारण किए हुए वस्त्र मैं नहीं पहनती।'
२७० वीर विक्रमादित्य