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'अवश्य, प्रियतम! तुम्हारे बिना मुझे एक क्षण भी चैन नहीं पड़ती। मैं अवश्य आऊंगी, किन्तु कल मृगमांस का भोजन तैयार कर रखना है।'
'तुझे मृगमांस प्रिय है, यह मैं जानता हूं, किन्तु आज मुझे मृग नहीं मिला, इसलिए कुक्कर का मांस पकाया था।'
उसके पश्चात् उस पुरुष ने पुन: उमादे को चूमा। उमादे ने तब उस दंड को तीन बार भूमि पर पटका और वह एक हुंकार के साथ वृक्ष पर चढ़ गई। वृक्ष वायुवेग से आकाश में उड़ने लगा और वह अपने मूल स्थान में आकर रुक गया।
वीर विक्रम एक स्थान पर छिपकर बैठा था। उमादे ने नीचे उतरकर देखा, अभी कोई जागृत नहीं हुआ था। वह मदमस्ती की चाल चलती हुई भवन में गई। अपने खंड में जाकर उसने द्वार बन्द कर लिये।
पंडितजी वृक्ष के कोटर से बाहर निकले। वीर विक्रम उनके पास आया। दोनों धीरे-धीरे पिछले द्वार से बाहर निकल गए। वे दोनों गांव के बाहर एक मंदिर के बरामदे में जा बैठे।
वीर विक्रम ने पूछा- 'क्यों गुरुदेव! मेरी बात पर कुछ विश्वास हुआ?'
'वल्लभ ! तुमने मेरी आंखें खोल दी....मैं तुम्हारा उपकार कभी नहीं भूल पाऊंगा। सती का अभिनय करने वाली यह दुष्टा मात्र प्रेमी के साथ रतिक्रीड़ा करती है। इतना ही नहीं, वह मांस-मदिरा का सेवन भी करती है।' पंडितजी ने जलते हृदय से कहा।
'आप यह क्या कहते हैं?
'हां, वल्लभ ! मैंने यह सब अपनी आंखों से देखा है। मैं तुम्हारी बात को एक स्वप्न-भ्रम मानता था, किन्तु तुम्हारी बात पूर्ण सत्य निकली। अब बताओ मुझे क्या करना चाहिए?
'करना क्या है? जो हो रहा है उसे देखना है और चतुर्दशी की रात को एक युक्ति काम में लेनी है।'
'वल्लभ! अभी उस कालरात्रि में पांच दिन शेष हैं....इस बीच यह दुष्ट नारी कुछ का कुछ कर डाले तो....।'
__'यह कुछ नहीं कर सकती। यह नीची जाति की योगिनियों और क्षेत्रपाल को संतुष्ट करना चाहती है। आप पूर्ण निश्चिन्त रहें। ऐसा व्यवहार करें कि मानो कुछ भी न देखा हो, न सुना हो । चतुर्दशी की रात को क्या करना है, वह मैं बाद में बताऊंगा।'
'ओह ! किन्तु अब मैं उमादे को किस दृष्टि से देख सकूँगा?'
'गुरुदेव! आप तो विद्वान् हैं, पांडित्य और धैर्य की प्रतिमूर्ति हैं। आप यदि घबरा जाएंगे तो आपकी पत्नी नीच और ओछी विधाओं के द्वारा अघटित घटित
२८८ वीर विक्रमादित्य