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कर देगी। आज तक जो प्रेम और स्नेह आप अपनी पत्नी के प्रति रखते रहे हैं, उसी प्रकार कुछेक दिन और रखें। स्त्रियां अभिनय में कुशल होती हैं, किन्तु पुरुष उनसे भी अधिक चतुर होते हैं।' वीर विक्रम ने कहा।
'तुम्हारी बात सही है। मैं पूर्ण सावधान रहूंगा। अब हमें नगरी में कब जाना है?'
'सूर्योदय के पश्चात् हम यहां से चलेंगे। आपकी पत्नी पूछे तो आप कहेंतुम अन्नजल बिना रहोगी, इस कल्पनामात्र से मैं कांप उठता हूं और इसीलिए हम रात्रि के चौथे प्रहर में ही वहां से विदा हो गए थे।'
वैसा ही हुआ। सूर्योदय हुए अभी एकाध घटिका बीती होगी कि दोनों ने भवन में प्रवेश किया। पंडितजी ने देखा, सभी विद्यार्थी जाग गए थे।
उमादे के खंड का द्वार अभी बन्द पड़ा था। विक्रम ने सोचा, आराम से सो रही होगी।
कुछ समय पश्चात् उमादे खंड से बाहर निकली। अपने स्वामी को देखकर वह बोली- 'स्वामीनाथ!'
'प्रिये तुम मेरे दर्शन किए बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करती, यह मेरे लिए असह्य होता है। हम इसीलिए जल्दी आए हैं। हमें अभी प्रात:कार्य करना है।'
'ओह! स्वामी! तब तो आप बहुत थक गए होंगे....अन्दर पधारें, मैं तेलमर्दन कर दूं।'
___ 'नहीं, प्रिये! अन्नजल के बिना तुम भी थक गई होगी-तुम्हारे स्मरण से मुझे श्रम नहीं होता।' पंडितजी ने कहा।
और सभी प्रात:कार्य में जुट गए।'
५५. कालरात्रि कृष्णपक्ष की त्रयोदशी आ गई।
वीर विक्रम की सूचना के अनुसार पंडितजी सावधान और शांत थे, किन्तु उनके हृदय की अकुलाहट वैसी ही थी। वे बार-बार सोचते, उच्च ब्राह्मण जाति
और ऊंचे कुल की कन्या होने पर भी इसमें ये दुष्ट संस्कार कैसे आ गए? मद्यपान, मांसभोजन और व्यभिचार-ये तीनों नरकगमन के हेतु हैं। ये मनुष्य का पतन करने वाले और आत्मबल को क्षीण करने वाले हैं, फिर भी उमादे को इनमें कितना रस है? इस रस की सुरक्षा के लिए शांत और कृपालु पति की भी हत्या करने को तैयार हो गई है। इतना ही नहीं, यह निर्दोष चौंसठ विद्यार्थियों की बलि देने पर भी उतारू
वीर विक्रमादित्य २८६