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राजकन्या कुछ नहीं बोली। वह ऊंट से नीचे उतर गई।
एक स्वच्छ स्थान देखकर विक्रम ने चादर बिछाई। ओढ़ने के लिए दो वस्त्र निकाले और धनुष-बाण भी अपने पास रख लिये।
राजकन्या ने अपनी रत्नपेटिका पास में रखी। विक्रम ने पूछा- 'इस पेटिका में अलंकार हैं?' लक्ष्मीवती ने केवल मस्तक नवाया।
दोनों ने नदी के स्वच्छ जल में हाथ-मुंह धोए और पास में जो खाद्य सामग्री थी, उसे खाकर भूख शांत की। विक्रम ने ऊंट के लिए चारे का प्रबन्ध कर दिया।
संध्या बीती। रात का प्रारम्भ हो गया।
विक्रम अपनी थैली को तकिए की भांति रखकर चादर पर बैठ गए। राजकन्या भी रत्नपेटिका को चादर के नीचे तकिए की तरह रखकर चादर के एक ओर बैठ गई।
विक्रम ने लेटकर कहा-'देवी! आज तुम कुछ समय तक मेरी पगचंपी करो, जिससे कि मेरी थकान दूर हो।'
राजकन्या घबरा गई। उसने सोचा, भाग्य में जुआरी ही पति के रूप में लिखा है तो फिर दूसरा संशय क्यों रखू?'
राजकन्या विक्रम की पगचंपी करने लगी।
इधर वैताल ने भीमकुमार और श्याम को उनकी राजधानी चक्रपुर के एक उद्यान में ला छोड़ा। वैताल चला गया। प्रात:काल होने पर दोनों अंग मरोड़कर उठे मानो कि वे घोर नींद से उठ रहे हैं। दोनों ने सोचा, 'अरे! यह क्या? हम कहां आ गए? राजकुमारी कहां है? कहां है वह राजभवन, जहां से लक्ष्मीवती ने मुझे संकेत से कुछ प्रतीक्षा करने के लिए कहा था? अरे, यह उपवन तो परिचित-सा है। दोनों घटित घटना के बारे में आश्चर्यमुग्ध होकर सोचने लगे। अब सोचने के सिवाय उनके पास रहा ही क्या था?
५१. वेश्या के जाल में रात्रि के प्रथम प्रहर के पूरे होते-होते ही, उजागर और प्रवास की थकान से श्रान्त बने वीर विक्रम निद्राधीन हो गए। उनके पैरों पर राजकन्या के हाथों का कोमल स्पर्श हो रहा था....किन्तु इसकी चिन्ता किए बिना विक्रम गहरी नींद में सो गए।
पगचंपी करती हुई राजकन्या के मन में विचार आ रहे थे। भाग्य की लीला अपरंपार होती है। कहां ताम्रलिप्ति का सप्तभौम प्रासाद और कहां यह जनशून्य अरण्य ! कहां इच्छित पुरुष का वरण करने वाली राजकन्या मैं और कहां भाग्यवश
वीर विक्रमादित्य २६१