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योगी बोला-'नहीं, महाराज! हमारा काम संध्या के बाद ही प्रारम्भ होगा। किन्तु उससे पूर्व हम कुछ प्रारंभिक क्रियाएं सम्पन्न कर लें।'
विक्रम को साथ लेकर योगी अपने आश्रम में आया। विक्रम ने देखा, आश्रम के चौक में एक विशाल अग्निकुण्ड बनाया गया है। उसके आस-पास विविध सामग्री पड़ी है। वहां विविध रंगों के वस्त्र भी पड़े हैं। पर्णकुटीर के एक वृक्ष के नीचे एक अश्व और दो गाएं बंधी हुई हैं।
योगी ने मृगचर्म बिछाया और विक्रम को उस पर बैठने के लिए कहा। विक्रम वहां बैठ गए। योगी ने स्वर्णपुरुष की सिद्धि के लिए प्राथमिक तैयारियां प्रारम्भ की। संध्या के समय विक्रम को मंत्रपूत जल से स्नान कराया और कुछेक मंत्रों से उसकी प्रतिष्ठा की।
विक्रम मन-ही-मन जानते थे कि योगी मुझे ही होम डालना चाहता है, किन्तु उन्होंने अपना मनोभाव व्यक्त नहीं होने दिया। योगी ने विक्रम को वल्कल धारण कराकर कहा- 'राजन् ! अब मैं यज्ञ प्रारम्भ करता हूं। आपको उस मंत्रशक्ति वाले वर्तुल में खड़े रहना है और अप्रमत्त रहकर आस-पास ध्यान रखना है।'
योगी ने फिर कहा- 'अर्ध प्रहर रात्रि के बीत जाने पर सामने वाले वटवृक्ष पर लटकने वाले शव को मेरे पास लाकर रखना है। फिर मैं उस शव पर बैठकर आह्वान करूंगा। उस समय तुम्हें पूर्ण धैर्य रखना है, क्योंकि उस समय तुम्हारे वर्तुल के आस-पास भूत, प्रेत, डाकिन, शाकिन और दुष्ट व्यंतर देव एकत्रित होंगे और मेरे यज्ञ को खण्डित करने का प्रयास करेंगे। वे विविध रूप धारण करेंगे। यह उपद्रव मात्र आधे प्रहर तक चलेगा। किन्तु तुम्हारे हाथ में मंत्रसिद्ध कृपाण देखकर वे सारी दुष्ट आत्माएं आगे नहीं बढ़ पाएंगी। ठीक मध्यरात्रि में मेरी साधना पूरी होगी और तब सारी दुष्ट आत्माएं अदृश्य हो जाएंगी। फिर केवल प्रदक्षिणा की क्रिया शेष रहेगी।'
विक्रम ने कहा-'महात्मन्! मैं जब शव लेने जाऊंगा तब तो मुझे वर्तुल से बाहर निकलना ही होगा?'
'हां, किन्तु जो कुछ उपद्रव होगा, वह शव को यहां लाने के पश्चात् ही होगा।'
'शव को लाने के लिए जाते समय क्या मुझे विशेष अनुष्ठान करना पड़ेगा?' विक्रम ने पूछा।
'नहीं, केवल मौन रहना है।' योगी बोला। 'ठीक है। मैं इस कार्य को भली-भांति पार लगा दूंगा।'
'मुझे विश्वास है कि मेरा अनुष्ठान सफल होगा। समय हो गया है, अब हमें अनुष्ठान प्रारंभ कर देना चाहिए।' योगी ने कहा।
वीर विक्रमादित्य १८३