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'ऊंट तो तैयार है....केवल आपका कुछ सामान और धनुष-बाण ऊपर रखने हैं। यह तो मैं क्षण-भर में कर लूंगा....किन्तु आप यदि अधिक नशा कर लेंगे तो....'
'ओह! तू बहुत कुशल है....कोई बात नहीं....पीछे देना। अरे श्याम! तुझे संकेत याद है या नहीं?'
'क्या आप भूल गए?' . 'हां, मुझे बता दे....'
'राजभवन के पीछे राजकन्या के शयनकक्ष में एक दीपक टिमटिमाता मिलेगा....आपको नीचे खड़े रहकर तीन बार सियार की तरह बोलना है.....
'शाबाश, श्याम ! उपवन की कुछ दूरी पर तुझे ऊंट को बिठाए रखना है।' 'मुझे याद है.....अब आप वेश बदलें.....
'मुझे तैयार होने में समय नहीं लगेगा....अभी रात्रि का पहला प्रहर भी पूरा नहीं हुआ है। तू मुझे मदिरा का एक पात्र दे, जिससे कि चेतना और गर्मी आ जाए.....फिर तो अपने घर जाने पर ही मदिरा पीने को मिलेगी।'
__ श्याम ने मदिरा का एक पात्र भीमकुमार को दिया। उसने पात्र को आधा खाली कर श्याम के हाथ में देते हुए कहा- 'श्याम ! अब तू पी ले। पात्र खाली हो जाने पर मांगना शेष नहीं रहेगा।'
___ इतनी चर्चा सुनकर विक्रम अदृश्य रूप से बाहर निकलकर अपनी कुटीर में आ गए। वे अपना जो थोड़ा-सा समान था, उस लेकर राजभवन की ओर चल पड़े।
उद्यान से बाहर निकलकर उन्होंने अपने मुंह से अदृश्य गुटिका निकालकर कमर में बांध ली और राजभवन के परिसर में आ गए।
उस समय दूसरा प्रहर प्रारम्भ हो चुका था। राजभवन के पीछे एक उपवन था। उपवन के पिछले हिस्से में अनेक सघन वृक्ष थे। वीर विक्रम ने परीक्षण किया और एक वृक्ष के कोटर में सामान रख अदृश्यकरण गुटिका को मुंह में रख अदृश्य हो गए। वे वृक्ष पर चढ़े और उपवन में घुस गए। उन्होंने राजभवन को देखा। राजभवन की पांचवीं मंजिल के गवाक्ष में एक दीपक टिमटिमा रहा था। उस पर जालीदार ढक्कन था। वीर विक्रम ने राजकुमारी की चतुराई समझ ली। उन्होंने सोचा- राजकुमारी बहुत चतुर है....एक बार उसकी रत्नपेटिका को देख लेना चाहिए....यह सोचकर उन्होंने राजभवन में प्रवेश करने का निर्णय कर लिया।
वीर विक्रमने एक द्वार से प्रवेश करना चाहा। उन्होंने पहले अन्दर झांककर देखा। उनके मन में एक संशय उभरा....दीपमालिकाओं के प्रकाश में स्वयं के
वीर विक्रमादित्य २५१