________________
५०. जुआरी राजा चन्द्र का सप्तभौम प्रासाद अत्यन्त शून्य-सा प्रतीत हो रहा था, मानो कि वह निद्रादेवी की गोद में चला गया हो। राजभवन के उत्तर में प्रवेश-द्वार था। वहां दस-पन्द्रह सशस्त्र प्रहरी पहरा दे रहे थे। उसी ओर दास-दासियों के लिए निवासगृह बने हुए थे। भवन के दास-दासी अपने-अपने निवासगृह में पहुंचे चुके थे। कुछेक सेवक राजभवन में निद्राधीन हो गए थे।
मध्यरात्रि का समय हो चुका था। विक्रम और वैताल भीमकुमार की प्रतीक्षा में बैठे थे। दो सशस्त्र प्रहरी उपवन की ओर दृष्टि कर आगे बढ़ गए थे।
और विक्रम की तेज दृष्टि उपवन की चारदीवारी पर स्थिर हुई। एक मनुष्य दीवार फांदकर अन्दर आ रहा था। विक्रम ने वैताल का ध्यान उस ओर खींचा।
भीमकुमार दीवार फांदकर उपवन में प्रविष्ट हो गया था। वह चारों ओर देखता हुआ मंद गति से आगे बढ़ रहा था। फिर उसने गवाक्ष कीओर देखा, जहं एक दीपक टिमटिमा रहा था। तत्काल उसने एक वृक्ष की ओट में खड़े होकर तीन बार सियार की-सी आवाज की। कुछ ही क्षणों में राजकन्या गवाक्ष में आयी और हाथ के संकेत से कुछ देर ठहरने को कहा।
उसी समय वैताल ने अपना कार्य प्रारम्भ किया। भीमकुमार उसी वृक्ष के पास मूर्छित होकर गिर पड़ा। वैताल ने तत्काल उसे उठा लिया।
और विक्रम वहीं खड़े रह गए। उन्होंने अदृश्यकरण गुटिका अपने मुंह से निकालकर कमर में बांध ली।
वैताल उपवन के पिछले भाग की झाड़ी में गया। उसने देखा, एक ऊंट बैठा है और एक व्यक्ति वृक्ष की आड़ में खड़ा-खड़ा उपवन की चारदीवारी की ओर देख रहा है। वह श्याम था, राजकुमार का ऊंटचालक । वैताल ने उसे भी मूर्च्छित कर उठा लिया और दोनों को लेकर अदृश्य हो गया।
इस ओर राजकन्या पुन: गवाक्ष में आयी। उसने कौशेय रज्जु के सहारे रत्नपेटिका को नीचे ढकेला और भीमकुमार को निकट आने का संकेत किया।
भीमकुमार के स्थान पर खड़े विक्रम गवाक्ष के नीचे आए। रत्नपेटिका नीचे आ गई थी। विक्रम ने रत्नपेटिका को रज्जु से मुक्त किया। राजकन्या ने तत्काल रज्जु को ऊपर खींच लिया। फिर उसने हाथ के संकेत से विक्रम को वहीं खड़े रहने के लिए कहा।
विक्रम ने संकेत को समझ लिया। वे रत्नपेटिका लेकर एक वृक्ष की ओट में खड़े रह गए।
वीर विक्रमादित्य २५५