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देना चाहता है, क्योंकि वह दस वर्षों से बत्तीस लक्षण वाले पुरुष की खोज कर रहा है। अन्त में आप उसे मिल गए हैं। मैं आपको सावधान करने आया हूं।'
'ओह मित्र ! मैं तुम्हारा उपकार मानता हूं। बताओ, अब मुझे क्या करना चाहिए?'
'चतुर्दशी के दिन आपको वहां जाना ही नहीं चाहिए।'
"मित्र ! मैंने उस योगी को वचनदे दिया है, इसलिए जाना तो पड़ेगा ही।' विक्रम ने कहा।
'अच्छा, जब वह योगी आपको यज्ञकुंड की तीन प्रदक्षिणा देने के लिए कहे, तब आपको जागरूक रहना है और उसी को पकड़कर यज्ञकुंड में होम देना है।' वैताल ने कहा।
विक्रम ने वैताल का आभार माना और आज की रात राजभवन में रहने का आग्रह किया।
वैताल ने हंसते हुए कहा- 'महाराज! आप जानते ही हैं कि अब मैं संसारी बन गया हूं। पत्नी के क्रोध के समक्ष मेरी शक्ति पंगु हो जाती है। मैं बड़े-से-बड़ा प्रश्न समाहित कर सकता हूं। किन्तु......।'
विक्रम ने हंसकर कहा- 'क्या तुम्हारी जाति की स्त्रियों में इतना बल होता है?'
वैताल कुछ उत्तर दे, उससे पहले ही अदृश्य रूप में कुछ मीठा और गम्भीर हास्य दोनों के कानों से टकराया। वैताल चौंका । वह संभले उससे पहले ही उसकी पत्नी दृश्य होकर बोली- 'आप अपने मित्र के समक्ष मेरी निन्दा करने के लिए ही आते हैं न?'
विक्रम ने उत्तर दिया- 'देवी! मैं आपका स्वागत करता हूं। मेरे मित्र ने आपकी निंदा नहीं की, किन्तु स्त्री की शक्ति का जो भान उसे हुआ, वह बताया है। आप अचानक यहां कैसे?'
वैताल पत्नी ने सहज भाव से कहा- 'महाराज! अचानक ये चले गए, इसलिए मैं इनके पीछे चली आयी।'
वैताल ने कहा-'प्रिये ! महाराजा विक्रम को मैं परम उपकारी मानता हूं। इनके सहवास से ही मैंने मांस, मदिरा आदि दूषणों का परित्याग किया है और कुछ धर्म की आराधना कर पाया हूं। इसलिए मैं इनके विषय में सावचेत रहता हूं। आज प्रात: मैंने इनका चिन्तन किया और मुझे वह दुष्ट योगी दिखाई दिया। इसलिए मुझे अभी अचानक यहां आना पड़ा है। बोल, इसमें मैंने क्या अनुचित किया ?'
वीर विक्रमादित्य १८१