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पूरी बात सुनने के बाद अग्निवैताल ने कहा- 'महाराज! आपने यह क्या किया? देवदमनी तो हमारी जाति में भी बहुत प्रसिद्ध है। उसने मंत्रशक्ति से अनेक देवी-देवताओं को प्रसन्न कर अपने वश में किया है। किन्तु आप निश्चिन्त रहेंमैं आपका कार्य पूरा करूंगा और आज ही रात्रि के प्रथम प्रहर में हम सिकोत्तर पर्वत पर पहुंच जाएंगे। आप वेश परिवर्तन कर तैयार रहें। मैं तो अदृश्य ही रहंगा और इन्द्र जो उपहार देवदमनी को देंगे, मैं उनका अपहरण कर लूंगा।'
मित्र! मुझे विश्वास था कि यह कार्य तुम्हारे हाथों से ही पूरा होगा। अब तो यहीं रहना है न?'
'नहीं, महाराज ! मैं अत्यन्त मधुर किन्तु अति कठोर बन्धन में बंधा हआ हूं। मुझे अभी उसे प्रसन्न कर रात के लिए आज्ञा लेनी होगी।' वैताल बोला।
_ 'अरे, उसको साथ में ही ले लो न।' ___'नहीं, महाराज! उसका स्वभाव बहुत चंचल है। समय पर हमारी योजना ही उलट जाए।' अग्निवैताल ने कहा।
उसी समय उसके पीछे-पीछे अदृश्य रूप से आयी हई उसकी पत्नी बोली-'महाराज! आपके मित्र की बात में कोई सच्चाई नहीं है। आपके कार्य में कभी बाधक नहीं हूं। किन्तु आपके मित्र ही ऐसे हैं कि वे क्षण भर के लिए भी मेरे से अलग नहीं रह सकते। वास्तव में मेरे मधुर बन्धन को इन्होंने अपने कठोर बन्धन में जकड़ रखा है।'
महाराजा ने मित्र की पत्नी का सत्कार करते हुए कहा- 'देवी ! तुम्हारी बात सुनकर मुझे बहुत आनन्द आया। स्वामी के कठोर बन्धन को मधुरता में बदल देने का कार्य तुम्हारा है। संसार में माधुर्य के समक्ष कठोरता लाचार बनी रहती है।'
वैताल-पत्नी अपने स्वामी की ओर देखकर हंस पड़ी। वह बोली-'आप मौन क्यों हो गए? आज मैं भी आपके साथ ही चलूंगी और महाराजा के कार्य में सहायक बनूंगी। महाराजा को भी विश्वास हो जाएगा कि मैं चंचल नहीं, किन्तु चतुर हूं।'
'अगर तुमचंचल नहीं होती, तो मेरे पीछे-पीछे गुप्तचरी करने क्यों आती?'
'गुप्तचरी करने नहीं आयी हूं, किन्तु यह जानने आयी हूं कि आप महाराजा विक्रम के समक्ष मेरी क्या बात करते हैं ?'
पति-पत्नी का यह मीठा कलह आगे न बढ़े, इसलिए विक्रम ने आगे कहा'भाभीजी! तुम्हारे आगमन से मैं बहुत खुश हूं। मेरा मित्र मेरे साथ वचन से बंधा हुआ है, इसलिए उसे मेरे कार्य में सहयोग देना पड़ता है किन्तु तुम वचनबद्ध न होने पर भी जो सहयोग देना चाहती हो, यह शुभ है। तुम अवश्य ही साथ आना।'
२२२ वीर विक्रमादित्य