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'ये तो तुम्हारे अनुभव के शब्द हैं। किन्तु वैताल तो आज भी उतना ही कोमल है। तुमको क्षण भर के लिए भी नाराज न करना उसका व्रत है.... मेरी बात निराली है । मेरा अन्त:पुर सुन्दर पत्नियों से भरा पड़ा है। अनेक बार मैं यह भी भूल जाता हूं कि आज मुझे किस पत्नी के आवास पर रात बितानी है।' वैताल दम्पति हंस पड़े ।
भोजन से निवृत्त होने के पश्चात् अग्निवैताल अपनी पत्नी के साथ अदृश्य हो गया।
विक्रम देवदमनी के आवास की ओर गए ।
देवदमनी अपने प्रियदर्शन स्वामी की प्रतीक्षा में एक आसन पर बैठी थी । दो समवयस्क परिचारिकाएं सामने बैठकर राजभवन की बातें बता रही थीं। और महाराज विक्रमादित्य के आगमन की आवाज आयी ।
दोनों परिचारिकाएं खड़ी हो गईं.... किन्तु देवदमनी ने दोनों को बैठने का संकेत किया।
उसी समय वीर विक्रम ने देवदमनी के शयनखंड में प्रवेश किया। दोनों परिचारिकाएं पायल की मधुर ध्वनि के साथ शयन खण्ड से बाहर चली गयीं । बाहर जाते समय उन्होंने खण्ड का द्वार बन्द कर दिया ।
महाप्रतिहार अजय द्वार पर दो रक्षिकाओं को नियुक्त कर स्वयं अपने भवन की ओर चला गया ।
देवदमनी के हृदय में अनन्त बातें और अनन्त प्रश्न खलबली मचा रहे थे, किन्तु स्वामी को देखते ही वे प्रश्न गायब हो गए।
देवदमनी नवयौवना थी। किन्तु आज नववधू के वेश में उसका रूप और यौवन लज्जा की अरुणिमा के साथ सहस्र गुना खिल उठा था। उसने नीची दृष्टि किए खड़ी होकर स्वामी के कंठ में एक सुन्दर पुष्पमाला आरोपित कर दी ।
विक्रम ने देवदमनी को बाहुपाश में लेते हुए कहा- 'प्रिये ! शतरंज खेलते समय तो तुम्हारे में कोई संकोच ही नहीं था.... ?'
देवदमनी मौन रही, स्वामी के विशाल वक्षस्थल में मस्तक छिपाए खड़ी रही ।
विक्रम ने अपने दोनों हाथों से उसके मस्तक को ऊंचा किया और चुम्बन लेते हुए कहा, 'इतना संकोच किसलिए ?'
'उस दिन....।' देवदमनी आगे नहीं बोल सकी।
किन्तु उसके मनोभाव को जानते हुए विक्रम ने मधुर स्वर में कहा, 'उस दिन प्रतिस्पर्धिनी थी... और आज पराजित.... ।'
वीर विक्रमादित्य २३५