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धुएं से काला न हो जाए, इसलिए नगरी के सभी प्रजाजन यहां एकत्रित होते हैं और रसोई बनाकर भोजन करते हैं।'
'वाह! तो क्या राजभवन में भी रसोई नहीं होती?'
'नहीं, राजा का रसोईघर भी यहीं नदी के किनारे है। यहां से भोजन तैयार होकर राजभवन में पहुंचता है। अनेक सेठ-साहूकारों का भोजन भी नदी के किनारे आये हुए पृथक्-पृथक् मकानों में बनता है और उन-उनके मकान में पहुंच जाता है। आप कहां के निवासी हैं ?'
'मैं यहां से बहुत दूर मालवदेश में रहता हूं।' 'मालवदेश ? हां...हां... महाराज भर्तृहरि का राज्य ?'
'हां। मुझे इस नगरी में विश्राम लेना है। तो क्या पांथशाला या अन्य कोई स्थान प्राप्त हो जाएगा? ___'हमारे नगर की पांथशालाएं अत्यन्त सुन्दर और रमणीय हैं। किन्तु वहां भोजन का प्रबन्ध नहीं है। इसलिए आप नगरी के बाहर के उपवन में आरामिका में ठहरें। वहां आपको सुविधा रहेगी। वहां प्रतिदिन आपको दस कपर्दिकाएं देनी होंगी।' वृद्ध ने कहा।
विक्रम ने पूछा- 'भोजन के लिए वहां क्या व्यवस्था है?'
'सबको नगरी के बाहर जाना पड़ता है। देखें, सामने लाल रंग का तंबू दिखाई देता है। वहां पांच कपर्दिका में उत्तम भोजन सामग्री मिलती है और जो पीला तंबू है, वहां भोजन का कुछ भी मूल्य नहीं लिया जाता। एक राजा की ओर से और दूसरा नगरसेठ की ओर से चल रहा है।'
विक्रम नमस्कार कर आगे बढ़े। भूख लगी हुई थी। मध्याह्न का समय हो रहा था। वे लाल तंबू के पास गए। भीतर दो सौ मनुष्य भोजन कर रहे थे। वहां के एक सेवक ने विक्रम को आदरपूर्वक बिठाया।
__ भोजन-कार्य सम्पन्न कर विक्रम नगरी के एक उपवन में आए। उपवन के रक्षक ने विक्रम का सत्कार किया। विक्रम ने कहा- 'मैं यहां कुछ दिन रहना चाहता हूं।' रक्षक ने उनके लिए एक कुटीर की व्यवस्था कर दी।
विक्रम की दृष्टि उपवन के एक वृक्ष पर पड़ी। वृक्ष के नीचे एक तेजस्वी ऊंट खड़ा था। विक्रम ने उस रक्षक से पूछा- 'यह ऊंट तुम्हारा है?'
__ 'नहीं, श्रीमान् ! यह ऊंट किसी विदेशी अतिथि का है। वे मुझे दस कपर्दिका के बदले प्रतिदिन पचास कपर्दिकाएं देते हैं।'
विक्रम ने रौप्य मुद्रा निकालकर उसके हाथ में देते हुए कहा-'इसके विनिमय में कितनी कपर्दिकाएं मिल सकती हैं ?'
वीर विक्रमादित्य २४३