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सभी देवता खड़े हुए और देवी सिकोत्तरी को प्रणाम कर वहां से प्रस्थित होने लगे।
अग्निवैताल भी अपनी पत्नी के साथ अदृश्य होकर बाहर आ गया। जो चार दासियां थीं, वे इन्द्र की भेजी हुई थीं। वे भी अदृश्य हो गईं।
वैताल ने अदृश्य रहकर ही मुग्धभाव से देवदमनी को एकटक निहारने वाले विक्रम का कंधा हिलाया।
विक्रम सावधान हो गए। वे वनवासियों के मध्य से बाहर आए। कुछ दूर जाने पर दृश्य होकर वैताल बोला- 'महाराज! आपका कार्य पूरा हो गया है। इन्द्र ने सबसे पहले नंदनवन के ऐसे पुष्पों की माला दी थी, जो एक वर्ष तक भी नहीं मुरझाये। दूसरी बार उन्होंने एक रत्नजटित नूपुर दिया था और तीसरी बार यौवन को बनाए रखने वाली एक गुटिका स्वर्ण की डिबिया में रखकर दी थी। ये तीनों वस्तुएं मेरे पास हैं। देवदमनी को उसका पता भी नहीं है। अब हमको शीघ्र ही अवंती पहुंच जाना चाहिए।'
____ वैताल-पत्नी बोल उठी- 'महाराज! आपके मित्र झूठी शेखी बघार रहे हैं। इन तीनों वस्तुओं को मैंने झेला था।'
___ 'मेरी दृष्टि में तुम दोनों एक हो...मैं दोनों का आभार मानता हूं।' विक्रम ने कहा।
बीच में ही वैताल बोल उठा-'कर्त्तव्य-पालन में आभार या उपचार शोभा नहीं देता। अब आप मेरा हाथ पकड़ लें। देवदमनी वहां पहुंचे उससे पहले ही हमें वहां पहुंच जाना है और मेरी घरवाली एक चमत्कार भी करेगी।'
'क्या?'
'देवदमनी एक वृक्ष पर बैठकर आयी है। उसी वृक्ष पर बैठकर वह लौटेगी। देखें, वह मंदिर से बाहर निकल रही है। उसके हाथ में एक करंडक है। वह करंडक खाली है, ऐसी कल्पना भी उसे नहीं है। जैसे ही यह वृक्ष अवंती की ओर उड़ेगा, मेरी पत्नी अदृश्य रूप से उस वृक्ष पर बैठ जाएगी। मार्ग में एक सरोवर आता है। वृक्ष जब सरोवर के ऊपर उड़ेगा, तब मेरी पत्नी देवदमनी के हाथ से उस करंडक को नीचे गिरा देगी। करंडक सरोवर में ही गिरेगा। देवदमनी उसे पा नहीं सकेगी। वह यह मानेगी कि उपहार में प्राप्त तीनों वस्तुएं आकस्मिक ढंग से नीचे गिर पड़ी हैं।'
विक्रम बोले- 'तब तो इस कार्य का सारा यश तुम्हारी पत्नी को ही मिलना चाहिए।'
वीर विक्रमादित्य २२७