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४४. सिकोत्तरी का मंदिर प्रात:काल की झालर बज उठी। राजभवन की वाद्यमंडली ने प्रात:काल के अनुरूप रागिनी प्रवाहित की। गायकवृन्द प्रार्थना-गान गाने लगे। ___राजा वीर विक्रम सिंधुकुमारी लीलादेवी के आवास में सो रहे थे। स्वामी को गहरी नींद में सोये हुए जानकर लीलादेवी ने उन्हें नहीं जगाया। वह धीरे से पलंग से नीचे उतरी और प्रात:काल की तैयारी में लग गई।
किन्तु प्रात: संगीत की स्वरलहरियां सम्पूर्ण राजभवन को रसमय बना रही थीं और वीर विक्रम भी कुछ ही देर पश्चात् जागृत हो गए- उन्हें कुछ याद आया। आज कृष्ण पक्ष की अमावस्या है। आज शतरंज खेलने देवदमनी नहीं आएगी; क्योंकि उसने कार्य का बहाना बनाया है।
वीर विक्रम के क्षेत्रपाल द्वारा निर्दिष्ट उपाय स्मृतिपटल पर उभर आया। वे शय्या से एकदम नीचे उतरे। एक थाल में पड़े मुकुट और उत्तरीय को धारण कर खंड से बाहर आ गए।
उसी समय लीलादेवी आ पहुंची और स्वामी को बाहर जाते हुए देखकर बोली-'महाराज! प्रात:कार्य.....।'
बीच में ही विक्रम ने मुस्कराते हुए कहा- 'प्रिये ! चिन्ता मत करो। एक महत्त्व का कार्य याद आ गया है।'
लीलादेवी ने विशेष आग्रह नहीं किया। प्रणत होकर खड़ी रही। वीर विक्रम उसके गाल पर थपकी देकर त्वरित गति से चले गए।
लीलादेवी के आवास से वे सीधे अपने मुख्य भवन में आ गए। कलावती और कमलावती उसी भवन में साथ रहती थीं। उस समय दोनों स्नान करने गई हुई थीं।
वीर विक्रम अपने कक्ष में आए। वे प्रात:कार्य से निवृत्त हुए। इतने में ही कमलारानी और कलावती-दोनों वहां आ पहंची।
कमलावती ने आश्चर्य के साथ पूछा- 'आज तो आप लीलादेवी के आवास में गए थे न?'
'वहीं से आ रहा हूं।' 'इतने शीघ्र?' 'हां, कुछ कार्य याद आ गया, इसलिए।'
वीर विक्रम ने दोनों रानियों के साथ शतरंज की कुछ चर्चा की और कहा'प्रिये! मनुष्य का खेल कभी अनन्त नहीं होता। यह खेल भी पूरा होगा। जो व्यक्ति खेल में हारने का भय रखता है, वह कभी विजयी नहीं हो सकता। मुझे हारने का
२२० वीर विक्रमादित्य