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फिर वैताल और उसकी पत्नी वहां से विदा हो गए। विक्रम मंत्रणा-गृह से बाहर आए।
वे बहुत दिनों बाद आज राजसभा में गए थे। वहां का कार्य सम्पन्न कर वे राजभवन की ओर चले। उस समय मध्याह्न काल बीत चुका था।
रात्रि का प्रारम्भ होते ही वीर विक्रम ने वनवासी का वेश धारण किया। स्वामी को इस वेश में देखकर कला और कमला-दोनों रानियां हंस पड़ी।
विक्रम ने पूछा- 'क्या छद्म वेश यथार्थ नहीं लगता?' 'महाराज! आप तो वेश-परिवर्तन में बहुत निपुण हैं।' 'तो फिर हंसने का कारण ?'
'आपका यह वेश! किसी दिन नहीं और आज आपने ऐसा छद्म वेश धारण क्यों किया है?'
'प्रिये! आज मुझे कुछ दूर जाना है।' 'कितनी दूर ?'
'तुम चिन्ता मत करना। मैं समय पर आ जाऊंगा। किन्तु सारी बात दो दिन बात ही कहूंगा । जब तक कार्य सिद्ध न हो जाए, तब तक कुछ कहना उचित नहीं है।' विक्रम ने दोनों प्रियाओं की ओर देखकर कहा।
फिर वे भवन के गुप्त द्वार से राजभवन के उपवन में चले गए। कुछ ही समय पश्चात् वैताल अपनी पत्नी के साथ आ पहुंचा।
और वैताल की दैवी शक्ति के प्रभाव से मात्र अर्ध-घटिका में तीनों सिकोत्तर पर्वत पर स्थित सिकोत्तरी देवी के मंदिर में पहुंच गए।
वैताल बोला- 'महाराज! आज के उत्सव को देखने के लिए वनवासी आ रहे हैं। आप भी उनके साथ मिल जाना। मैं और मेरी प्रियतमा अदृश्य रूप से मंदिर में ही चले जाते हैं।'
विक्रम ने वैताल दम्पति का आभार माना और वे मंदिर की ओर अग्रसर हुए।
___ अभी रात्रि का प्रथम प्रहर चल रहा था। लगभग बीस वनवासी मंदिर के बाहर के प्रांगण में आकर बैठ गए थे। विक्रम भी उनके बीच शांति से बैठ गए।
मंदिर के सभा-मंडप के द्वार से विक्रम ने अन्दर झांका। उसने देखा, देवदमनी चार सुन्दर युवतियों के साथ एक ओर बैठी है। उसने उत्तम वस्त्रालंकार धारण कर रखे थे। उसके मस्तक पर तेजस्वी वज्ररत्न-जटित दामिनी बिजली की तरह चमक रही थी। नीलमवज्र के बाजूबंध, नीलमवज्र के कंकण, मुक्ता, नीलम
वीर विक्रमादित्य २२३