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मन-ही-मन कल्पना कर रही थी कि गर्व के शिखर पर चढ़ा हुआ मनुष्य अवश्य
नीचे आ गिरता है । राजा रावण को अपने विज्ञान, महान् सेना और प्रचण्ड भुजबल का गर्व हुआ था और उसके परिणामस्वरूप उसे अपने प्राण गंवाने पड़े । इस दुष्परिणाम से बचाने के लिए कमला देवी ने आराधना प्रारंभ की।
और विगत नौ-नौ महीनों से राजा के हृदय में दान और उपकार की निष्फलता का प्रश्न शल्य की भांति चुभ रहा था। राजसभा समाप्त होने पर विक्रम ने महामंत्री से कहा- 'भट्टमात्र ! कल से दान देने का यह नाटक बन्द कर दो ।'
भट्टमात्र अवाक् बन गया। उसने आश्चर्य के साथ कहा - 'महाराज ! आप यह क्या कर रहे हैं ? हजारों-हजारों लोग आपके दान की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हैं। हजारों व्यक्तियों का दारिद्र्य दूर होता है। हजारों व्यक्तियों के हृदय ठण्डे होते हैं। यदि आप दान बन्द करेंगे, तो जनता में अनेक प्रकार की शंकाएंकुशंकाएं उभरेंगी ।'
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विक्रम ने कहा - 'महामंत्री ! दान मिलने पर लोग वाह-वाह करते हैं और न मिलने पर निन्दा करते हैं, यह बात सही है। किन्तु जिस दान और उपकार का फल केवल शून्य होता है, उसको बनाए रखना बुद्धिमत्ता नहीं है। मुझे दान और उपकार की निष्फलता का साक्षात् प्रमाण मिल चुका है। अब मैंने यह निश्चय कर लिया है कि इस प्रवृत्ति को बंद कर देना चाहिए। दान और उपकार, यह मनुष्य की कल्पना की उपज है । इनके फल की अलौकिक बातें भी काल्पनिक हैं। अब आपको मेरी आज्ञा के अनुसार दान बंद कर देना है।'
महामंत्री अवाक् बनकर सब कुछ सुनता रहा।
आज महाराजा विक्रम सभी पत्नियों को साथ लेकर जल-विहार के लिए राजभवन के सरोवर पर जाने वाले थे। परन्तु जब उन्होंने सुना कि कमलादेवी तेले की तपस्या कर आराधना में बैठी है, तब उन्होंने जल-विहार के कार्यक्रम को स्थगित कर दिया; क्योंकि कमलादेवी के बिना वे आमोद-प्रमोद में जाना नहीं चाहते थे। उन्होंने आराधना के कारणों की पूछताछ की, पर किसी से कुछ ज्ञात नहीं हुआ। इसलिए निराश होकर विक्रम अपने अश्व पर आरूढ़ होकर नगर के बाहर परिभ्रमण के लिए निकल पड़े। किसी को उन्होंने अपने साथ नहीं लिया । उनके मन में यह गर्व था कि मेरी शक्ति को दूसरे के संरक्षण की क्या जरूरत है ? इस प्रकार अपने भुजबल और पुरुषार्थ पर अहं करते हुए विक्रम अश्व को सरपट दौड़ाते हुए चले जा रहे थे । मध्याह्न बीतने वाला था। विक्रम की दृष्टि एक खेत की ओर गई और वे आश्चर्यचकित रह गए- अरे, यह क्या ? वे तत्काल अश्व को रोककर नीचे उतरे और एक वृक्ष की ओट में खड़े हो गए।
वीर विक्रमादित्य २०३