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होने पर भी मुझे कभी नहीं हरा सकीं। उनके अतिरिक्त महामंत्री भट्टमात्र और बुद्धिसागर भी मुझे नहीं जीत सके । इसलिए इस खेल में देवदमनी को पराजित करना कठिन नहीं है। यदि मैं जीत जाऊंगा तो देवदमनी की प्राप्ति होगी और हार जाऊंगा तो कुछ दिनों तक लोगों में चर्चा होगी, और कुछ नहीं। यह सोचकर विक्रम ने देवदमनी के साथ शतरंज खेलना स्वीकार कर लिया।
नागदमनी ने कहा-'कृपानाथ! आप एक बार और सोच लें। मेरी बेटी देवदमनी शतरंज खेलने में अत्यन्त निपुण है। आज तक उसको कोई जीत नहीं सका है। यदि आप उससे हार गए तो लोगों में आपकी हंसी होगी, अवज्ञा होगी।'
विक्रम बोले- 'नागदमनी! चिन्ता मत करो। सुयोग्य खिलाड़ी के साथ खेलकर हारना भी जीवन का एक आनन्द है। मुझे न हारने का भय है और न जीतने का हर्ष । तीन दिन पश्चात् मैं तुम्हें कहलवा दूंगा। तब तक द्यूतमंडप तैयार हो जाएगा।'
नागदमनी उठी, राजा वीर विक्रम का जयनाद कर प्रणत हो गई। विक्रम ने तत्काल महाप्रतिहार को बुलाकर भेंट देने के लिए तैयार रखा हुआ थाल मंगवाया। थाल आने के पश्चात् वीर विक्रम ने नागदमनी का सत्कार किया और नागदमनी वहां से घर के लिए विदा हो गई।
उसी दिन सायंकाल महामंत्री मिलने आए, तब वीर विक्रम ने शतरंज वाली बात कही। भट्टमात्र बोले-'आपने उतावलेपन में निर्णय किया है। ये दोनों मांबेटी-नागदमनी और देवदमनी-खतरनाक जादूगरनियां हैं। ये दोनों अनेक प्रकार के कामण-टूमण जानती हैं। लोग यह भी कहते हैं कि एक बार इनके फंदे में फंसने पर छुटकारा पाना कठिन होता है।'
विक्रम ने हंसते हुए कहा- 'भट्टजी! जहां विद्या होती है, वहां ऐसे लोकवाक्य प्रसृत हो जाते हैं। मुझे किसी भी कीमत पर यह काम करना है। मैं जो बात पकड़ता हूं, उसे पूरी किए बिना सुख की सांस नहीं सोता, यह आप जानते हैं। अब दो दिन के भीतर उद्यान के दक्षिण भाग में एक मंडप तैयार कराओ। उसमें उत्तम आसन रखाए जाएं और उसको भली प्रकार से शृंगारा जाए।'
राजाज्ञा को स्वीकार कर महामंत्री वहां से उठ गए। दो दिन में मंडप तैयार हो गया।
चौथे दिन महाराजा विक्रम का रथ नागदमनी और देवदमनी को लाने गया। दोनों-मां और बेटी दिन के प्रथम प्रहर के बाद आ गईं। मंडप में स्वर्ण के दो आसन बिछे थे। एक पर वीर विक्रम और दूसरे पर देवदमनी बैठ गई। नागदमनी पास में एक आसन पर बैठ गई।
वीर विक्रमादित्य २१३