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देवदमनी नागदमनी के साथ घर चली गई।
आज की पराजय से विक्रम के हृदय पर भारी आघात लगा। उसने सोचाएक नारी यदि खेल में ऐसे जीत जाए तो बहुत अपकीर्ति होगी। इसलिए क्या करना चाहिए? तत्काल उसके मन में एक विचार उभरा-राजा का और राज्य का संरक्षण क्षेत्रधाम करता है। आज रात्रि में मैं क्षेत्रधाम के मंदिर में जाकर उसकी आराधना करूंगा।
४३. खेल अधूरा रहा कृष्णपक्ष की द्वादशी। रात्रि का प्रथम प्रहर बीत चुका था। वीर विक्रम वेश बदलकर क्षेत्रपाल की आराधना करने के लिए राजभवन से पैदल बाहर निकले।
अंधेरी रात। घनघोर अंधकार।
विक्रम आड़े मार्ग से नगर के बाहर निकल गए । क्षेत्रपाल का मन्दिर नगर से तीन खेत दूर था। प्रतिवर्ष राजा अपने पूरे परिवार के साथ क्षेत्रपाल की पूजा करने आते थे और खाद्य-सामग्री से भरे अनेक थाल उनके समक्ष रखते थे।
वीर विक्रम के पूर्वजों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। राज्य ही इसकी देखरेख रखता था। यह माना जाता था कि राज्य के रक्षण का भार क्षेत्रपाल पर होता है। विक्रम ने यह भी सुना था कि एक बार उनके पितामह ने विपत्ति के निवारण के लिए क्षेत्रपाल की आराधना की थी और वह विपत्ति दूर हो गई।
मन में इस श्रद्धा को संजोकर वीर विक्रम किसी रक्षक को साथ न लेकर अकेले ही निर्जन मार्ग पर बढ़ते जा रहे थे।
विक्रम के मन में देवदमनी के विचार घुल रहे थे। स्वयं शतरंज के खेल में निपुण होने पर भी एक स्त्री से पहली बार हार गए थे। हार-जीत से भी यह बात महत्त्व की थी कि देवदमनी अत्यन्त रूपवती, चपल और आकर्षक थी। ऐसा नारीरत्न एक तेली के यहां जन्म ले, यह भी विस्मयकारी बात थी। यदि स्वयं हार जाता है तो देवदमनी प्राप्त नहीं हो सकती और लोगों में भी अपकीर्ति होगी।
___इस प्रकार अनेक विचारों में उलझे हुए विक्रम क्षेत्रपाल के मंदिर के निकट पहुंच गए। मन में क्षेत्रपाल का स्मरण कर वे मंदिर की चारदीवारी में घुसे। मंदिर में कोई नहीं था। पुजारी सायंदीपक जलाकर चला जाता था और दीपक भी कुछ समय तक जलकर बुझ गया था।
जिन दिनों का यह कथानक है, उन दिनों मंदिरों के ताले नहीं लगाए जाते थे। केवल कुत्तों और बिल्लियों के निवारण के लिए मंदिर के गर्भद्वार और मुख्यद्वार के कपाट बाहर से सांकल लगाकर बन्द कर दिए जाते थे। मंदिर में कितना भी धन
वीर विक्रमादित्य २१५