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शंखपाद सिंहासन से उठे और तेज स्वरों में बोले- 'भृगुदेव! विक्रम ने जो कहा है, वह हमें बिना किसी हिचकिचाहट के बताओ।'
दूत भृगुदेव ने कहा- 'कृपानाथ! राजा विक्रम प्रतिदिन याचकों को दान देते हैं। उस समय यदि आप याचक बनकर सिंहासन की मांग करते हैं तो वह आपको मिल सकता है। दूसरी शर्त यह है कि यदि राजा शंखपाद याचना कर सिंहासनले जाना नहीं चाहते हैं, तो वे अपने भुजबल से उसे प्राप्त करें। विक्रम ने यह भी कहा कि अब हमारा मिलन समरांगण में होगा। मैं तब उनका पूर्ण स्वागत करूंगा।'
__राजा शंखपाद विचारमग्न हो गये। राजसभा के सभी सदस्यों ने इसे सिंधु देश के नायक का बड़ा अपमान माना। सबने यही सोचा कि सस्ते दान से कीर्ति प्राप्त करने वाले विक्रम क्या यह मान बैठे हैं कि सिंधु देश की रजपूती मर गई है।
राजा शंखपाद ने मंत्रिगण, सेनापतियों तथा अन्यान्य परामर्शदाताओं से मंत्रणा कर पन्द्रह दिन के पश्चात् अवंती पर आक्रमण करने के लिए चतुरंगिणी सेना को कूच करने का आदेश दिया।
सिंधु देश से आये हुए मालव देश के गुप्तचर ने सारी स्थिति की पूरी जानकारी कर अवंती की ओर प्रस्थान कर दिया।
वीर विक्रम जानते थे कि सिंधुदेशाधिपति शंखपाद युद्ध की स्थिति उत्पन्न करेगा, इसलिए उन्होंने एक सप्ताह के भीतर ही बीस हजार की चतुरंगिणी सेना सज्जित कर सिंधु देश की ओर उसे कूच करने का आदेश दे दिया। वे स्वयं सेना के साथ थे।
पन्द्रह दिन बीत गए।
महाराजा शंखपाद के सेनानायक एक लाख की सेना सज्जित करना चाहते थे, पर वे केवल बीस हजार की सेना तैयार कर पाए। महाराजा चिंतित हुए। उन्होंने इसी सेना को लेकर अवंती पर आक्रमण करने की बात सोची।
राजा शंखपादअपनी राजधानी से कूच करें, उससे पूर्व ही महाराजा विक्रम की सेना ने सिंधु देश की सीमा में प्रवेश कर दिया। यह समाचार राजा शंखपाद तक पहुंचा और वे अपनी सज्जित सेना को लेकर समरभूमि में विक्रम का स्वागत करने सीमा पर पहुंचने के लिए प्रस्थित हो गए।
सिंधु देश की राजधानी से मात्र चालीस कोस की दूरी पर दोनों सेनाएं आमने-सामने मिल गईं। विक्रम ने एक दूत के द्वारा यह संदेश भेजा कि यदि शंखपाद क्षमा मांगकर घर चले जाएं, तो मैं उन्हें प्राणदान दे सकता हूं। मेरा उनसे कोई वैर नहीं है। मैं उन्हें मित्र-राजा मानने के लिए तैयार हूं। छोटे कारणों से देश को विनाश के कगार पर ला खड़ा करना क्षत्रिय का धर्म नहीं है।
१६२ वीर विक्रमादित्य