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भील-दोनों भोजन करने बैठे। रोट इतना मोटा और मजबूत था कि यदि किसी के कपाल पर उसका प्रहार किया जाए तो बड़ा फोड़ा हो जाए। किन्तु वह रोट आज विक्रम को इतना मीठा लग रहा था कि उसकी मिठास के समक्ष राजभवन के पकवान फीके हो गए थे। जो राबड़ी कैदी भी नहीं खा सकते, वह विक्रम को अमृत जैसी लग रही थी। राबड़ी में और कुछ नहीं था, केवल बाजरे का आटा, छाछ, पानी और नमक।
जब व्यक्ति भूखा होता है तब कोई भी भोजन मीठा लगता है। भूख के बिना जब भोजन करना होता है, तब ललचाने वाली अनेक सामग्री बनानी पड़ती है।
विक्रम ने दो बड़े पात्र भरकर राबड़ी पी और एक रोट खाया। इतना भोजन उन्होंने इन वर्षों में कभी नहीं किया था।
भील ने महाराज के हाथ धुलाए । पानी पिलाया। उसने भी ब्यालू कर लिया था। शेष जो बचा, उसे भीलनी ने खा लिया। उसने एक लक्कड़ ऐसा जला रखा था, जो रात-भर धीरे-धीरे जलता है और मंद-मंद प्रकाश फैलाता रहता है।
विक्रम आज बहुत थक गए थे। यहां से अवंती कैसे पहुंचा जाए, यह प्रश्न उन्हें सता रहा था। भील दम्पति के आतिथ्यभाव से वे बहुत प्रसन्न थे।
भीलनी जब ब्यालू सम्पन्न कर भील के पास आकर बैठ गई तब विक्रम बोले- 'भीलराज! आज से तुम मेरे मित्र बन गए हो। यदि आज तुम्हारा सहयोग मुझे प्राप्त नहीं होता तो मेरा क्या होता, कौन जाने ? और तुम दोनों ने आधे भूखे रहकर मुझे खिलाया, यह उपकार मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा।'
भील ने हंसते-हंसते कहा- 'महाराज! इसमें उपकार कैसा? हम तो वनवासी हैं। वन में इधर-उधर घूमते हैं और दो रोटियों का इंतजाम कर लेते हैं, किन्तु जब हमारे आंगन में कोई अतिथि आ जाता है तो हमारा भी तो कोई कर्तव्य होता है !
इस प्रकार जब बातें करते-करते आधी रात बीत गई तब भील ने उस टूटीफूटी खाट पर एक फटा कपड़ा बिछाकर विक्रम को उस पर सोने के लिए प्रार्थना की। विक्रम तत्काल वहां गए और कुछ ही क्षणों में घोर निद्राधीन हो गए। यह देखकर भील ने भीलनी से कहा-'त इस कोने में सो जा। रात में महाराज यदि जागें और कुछ मांगें तो उन्हें दे देना। मैं गुफा के द्वार पर पत्थर रखकर पहरा दूंगा।' यह कहकर भील गुफा के बाहर चला गया और एक बड़ा पत्थर गुफा के द्वार पर आड़े रखकर स्वयं पहरा देने बाहर बैठ गया; क्योंकि यदि स्वयं गुफा के भीतर सो जाए तो गुफा का द्वार बन्द नहीं किया जा सकता और यदि द्वार खुला रहे तो कोई भी हिंसक प्राणी अन्दर आकर अतिथि को कठिनाई में डाल सकता है।
वीर विक्रमादित्य १६६