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राजकुमारी ने विक्रमा का हाथ पकड़कर कहा- 'सखी! तुम अपनी योजना का परिणाम तो देखकर जाना।'
'राजकुमारीजी! यह योजना ऐसी है कि इसकी परिणति कब कैसे हो, कल्पना नहीं की जा सकती। कोई कलाकार चार दिन में भी मिल सकता है और चार महीनों में भी नहीं मिल पाता। इस अनिश्चित स्थिति में मैं रुकू, यह उचित नहीं है।'
राजकुमारी विचारमग्न हो गई। कुछ क्षणों बाद वह बोली-'तुम कुछ वचन मांग रही थी न?'
'आप देंगी?' 'तुम्हें न दे सकू, ऐसी क्या बात है?'
'अब आप पुरुष जाति के प्रति द्वेष मत रखना और जब आपका विवाह हो तब मुझे ज्ञात करवाना और आप एक बार अवंती अवश्य पधारना।'
'अरे! तुमने तो कुछ भी नहीं मांगा-यह तो मेरे हित की ही बात कही।'
विक्रमा हंसती हुई बोली- 'सखी को बिना कुछ मांगे ही बहुत कुछ मिल जाता है।'
दूसरे दिन विक्रमा ने प्रस्थान करने की बात महाराज और महारानी को भी बता दी। सभी ने वहां रुकने का आग्रह किया, पर विक्रमा अपने निर्णय पर अटल रही। महाराजा ने विक्रमा की भावना को समझ ली और राज्य की ओर से उसे सवा लाख स्वर्णमुद्राएं और विभिन्न आभूषण भेंट-स्वरूप दिए।
विक्रमा महाराजा से भेंट-स्वरूप प्राप्त स्वर्णमुद्राओं और अलंकारों को लेकर रूपमाला के भवन में आयी। मदन, काम तथा रूपमाला को स्वर्णमुद्राएं और अलंकार दे दिए। महामंत्री भट्टमात्र को पचीस हजार मुद्राएं भेंट कीं और प्रतिष्ठानपुर के अनेक सार्वजनिक स्थलों के लिए भी धन वितरित किया।
तीन दिन और बीत गए। - पांचों यात्री अपने-अपने अश्वों पर आरूढ़ होकर अवंती की ओर चल पड़े। प्रस्थान के समय नगरी से दो कोस दूर तक राजकन्या, रूपमाला और राज्याधिकारी साथ में आए।
और राजकन्या के गुलाबी नयन सजल हो गए। दस कोस की दूरी तय कर पांचों यात्रियों ने एक वन-प्रदेश में विश्राम किया।
अग्निवैताल बोला- 'महाराज! अब तो आप अपना यह स्त्री-वेश दूर करें।
विक्रम ने मुस्कराते हुए कहा-'क्यों मित्र ! मेरा अपहरण करने की बात तो नहीं सोच रहे हो?'
वीर विक्रमादित्य ११५