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'हां, पूर्व भारत में एक महान् संगीत-उत्सव है-उसमें भाग लेने के लिए प्रवास करना है, ऐसी मेरे गुरुदेव ने आज्ञा दी है।'
सुकुमारी अवाक् बनकर पति को देखती रही।
विक्रमादित्य बोले-'प्रिये! मैं एक क्षण के लिए तुमसे अलग नहीं हो सकता-किन्तु क्या करूं? तुम्हारी गर्भावस्था है। मैं इस अवस्था में तुम्हें प्रवास में नहीं ले जा सकता और प्रवास को नकारना भी गुरु की अवज्ञा है।'
सुकुमारी के नयन सजल हो गए। वह बोली-'आपके गुरु का संदेश कब आया था?'
'आज प्रात:काल ही-मेरा मित्र आया था।' 'ओह! क्या प्रवास में आपको छह मास लगेंगे?' 'हां प्रिये! मुझे बंग देश जाना है। इतना समय तो लग जाएगा।' 'इतना लंबा प्रवास?'
'तुम्हारा प्रेम मेरी पांखें बन जाएगा और मैं तब अपने प्रवास को सम्पन्न कर लूंगा-तुम इस पेटिका को सावधानी से अपने खास स्थान में रख देना।'
'पेटिका में क्या है?' 'पेटिका में कोई बहुमूल्य रत्न नहीं है-इसमें मेरे पूर्व जीवन के संस्मरण हैं।'
वियोग की कल्पना मात्र से सुकुमारी स्तंभित हो गई। उसकी आंखों से अजस्र आंसू बहने लगे।
विक्रम ने बड़े प्रेम के साथ उसके आंसू पोंछे और उसी रात्रि में अपने परम मित्र वैताल को याद किया।
तीसरे दिन प्रियतमा के आंसुओं की याद के साथ विक्रम वहां से प्रस्थित हो गए।
२८. वह चोर कौन होगा? बंग देश जाने का बहाना बनाकर विक्रम और अग्निवैताल दो तेजस्वी अश्वों पर चढ़कर वहां से चले। महाराज शालिवाहन ने दास-दासी, रक्षक, रथ, घोड़े आदि साथ में ले जाने का आग्रह किया था। किन्तु विक्रम ने इन सबको प्रवस में साथ ले जाने से इनकार कर दिया।
दोनों मित्रों को पहुंचाने के लिए महाराज, महादेवी, सुकुमारी तथा अन्यान्य राजपुरुष नगरी की सीमा तक साथ आए।
सबका आशीर्वाद लेने के पश्चात् विक्रमादित्य ने पत्नी की सजल आंखों के सामने प्रेम-भरी दृष्टि से देखा।
वीर विक्रमादित्य १३७