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विक्रम की ओर बढ़ते हुए खर्परक ने भयंकर अट्टहास किया। विक्रम ने गुफा को प्रकंपित करने वाला सिंहनाद किया और खर्परक की तलवार के टुकड़े कर डाले ।
खर्परक की तलवार के दो टुकड़े जमीन पर पड़े थे। खर्परक विस्मित होकर उन्हें देखने लगा । खर्परक तत्काल भीतरी खण्ड की ओर दौड़ा, जहां देवी चंडिका द्वारा प्रदत्त दिव्य खड्ग रखा हुआ था।
विक्रम ने अग्निवैताल को याद किया। अग्निवैताल की कालावधि पूरी हो चुकी थी । खर्परक अपना दिव्य खड्ग लेकर आए, उससे पूर्व ही अग्निवैताल वहां आ पहुंचा। आते ही उसने कहा - 'महाराज की जय हो। आपने मुझे यथासमय याद किया है। यह दुष्ट खर्परक दिव्य खड्ग लेकर आयेगा। उस खड्ग के समक्ष कोई नहीं टिक सकता। किन्तु आप धैर्यवान् हैं। आप उसे छकाते रहें, फिर मैं अपनी करामात दिखाऊंगा।'
'कृतज्ञ हूं मित्र !' विक्रम ने कहा ।
इतने में ही यम के वाहन भैंसे - जैसा खर्परक हाथ में दिव्य खड्ग लेकर भीषण गर्जना करता हुआ वहां आ गया।
'अरे दुष्ट! दूसरा लोहखण्ड ले आया ?' विक्रम ने ललकारते हुए कहा । 'यह लोहखण्ड नहीं है, तेरा काल है। मेरे इस खड्ग के समक्ष इन्द्र भी नहीं ठहर सकते।' कहते हुए खर्परक ने विक्रम पर प्रहार किया ।
किन्तु खड्ग-युद्ध में निपुण विक्रम ने खर्परक के प्रहार को व्यर्थ कर दिया। देवी चंडिका के खड्ग का प्रहार व्यर्थ हुआ देखकर खर्परक अत्यन्त क्रुद्ध होकर फुफकार उठा। उसकी नासिका फूल उठी और उसकी आंखों से अंगारे बरसने लगे ।
विक्रम जानता था कि जब तक खर्परक के हाथ में दिव्य खड्ग है, तब तक उसको पराजित नहीं किया जा सकता। इसलिए अग्निवैताल की सूचना के अनुसार विक्रम ने उसको और अधिक थकाने और छकाने के लिए मंडल - व्यूह की रचना की।
खर्परक के पास शक्तिशाली दिव्य खड्ग था, किन्तु वह इस बात से अजान था कि किस प्रकार के व्यूह-युद्ध में कैसे लड़ा जाता है। फिर भी वह अपने आपको महान् योद्धा समझता था । मण्डल - व्यूह के कारण खर्परक दो-तीन बार गिरतेगिरते संभला । विक्रम उसको थका रहा था। अग्निचैताल अदृश्य रहकर यह संग्राम देख रहा था। उसने देखा कि खर्परक थक गया है और विक्रम प्रसन्न हैं, उसने अदृश्य रूप से ही दैवी खड्ग का अपहरण कर उसे विक्रम के हाथों में सौंप दिया और विक्रम का खड्ग खर्परक के हाथ में दे दिया।
१६४ वीर विक्रमादित्य