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सार्थवाह का धनभंडार इतना सुरक्षित है, जिसके भवन पर आठों प्रहर चौकीदार रहते हैं, ऐसे धनाढ्य सेठ राजशेखर के घर यदि चोरी होती है तो भला दूसरों के घर का तो कहना ही क्या?
राजसभा में विक्रम के समक्ष जब चोरी की यह फरियाद आयी तब उसका सुख-स्वप्न धूलिसात् हो गया।
नगररक्षक उस चोर को पकड़ने में असफल रहा था। राज्य का गुप्तचर विभाग भी निराश हो चुका था।
महाबलाधिकृत, जो विराट् सेना के समक्ष अकेले जूझने में सक्षम था, वह भी इस एक अकेले चोर को पकड़ने में अक्षम प्रमाणित हुआ। पुराना महामंत्री बुद्धिसागर भी इस चोर के प्रसंग में बुद्धिहीन बन गया।
_ विक्रम का खून खौल उठा। उनकी आंखों से तेज निकलने लगा। उन्होंने सभा के समक्ष प्रतिज्ञा के स्वरों में कहा-'जब तक चोर को नहीं पकड़ा जाएगा, तब तक मैं राजवैभव का त्याग कर चोर को पकड़ने के कार्य में ही जुटा रहूंगा।'
नौजवान राजा की उद्घोषणा सुनकर समग्र राजसभा अवाक् रह गई। विक्रम ने उसी दिन से सादा भोजन करना प्रारम्भ कर दिया था और रात्रि का प्रथम प्रहर पूरा हो, उससे पूर्व ही वे अकेले वेश-परिवर्तन कर नगर-चर्या के लिए निकल जाते-पूरी रात घूमते और प्रात: राजभवन में आ जाते।
दो रात इस प्रकार व्यतीत हुई और तीसरी रात को बिजली कड़क उठी।
विक्रम नगर-भ्रमण से निवृत्त होकर प्रात:काल भवन में लौटे। वे नगररक्षक और मंत्रियों को बुलाकर चोर के विषय में मंत्रणा करना चाहते थे। वे ज्यों ही स्नान आदि से निवृत्त होकर, वस्त्र धारण करने लग, तब तक परिचारिका हांफती हुई दौड़ी-दौड़ी आयी और घबराती हुई बोली-'क्षमानाथ! ऊपर पधारें....'
'क्यों? तू इतनी घबरा क्यों रही है?' 'कृपानाथ! आप शीघ्र ऊपर चलें।'
विक्रम तत्काल उठे और परिचारिका के साथ भवन की प्रथम मंजिल पर गए। वहां महारानी कमला अत्यन्त उदास खड़ी थी। प्रियतमा को देखते ही विक्रम बोले-'प्रिये! तुम इतनी उदास क्यों?'
'महाराज! अकल्पित घटना घटित हो गई है।' 'क्या?'
'मांत्रिक चोर रात को राजभवन में आया ऐसा प्रतीत होता है और वह नई रानी कलावती का अपहरण कर ले गया है....।' १५० वीर विक्रमादित्य