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भट्टमात्र खड़ा खड़ा अनेक कल्पनाएं कर रहा था। वह विक्रम को एक रूपवती कन्या और एक दिव्य पुरुष के साथ देखकर आश्चर्यचकित रह गया ।
विक्रम बोले- 'मित्र! तुम्हारी भविष्यवाणी सत्य साबित हुई है।' यह कहकर उन्होंने विद्याधर धीर और उसकी पुत्री कलावती का परिचय दिया ।
विद्याधर बोला- 'राजन् ! सामने वृक्ष की ओर दृष्टि करें। वहां एक दिव्य रथ है। आप मेरी कन्या को लेकर पधारें। आज का दिन उत्तम है - मैं रुक नहीं सकता ।'
सुरूपा कलावती पिता से चिपट गई। पिता ने कहा - 'कला ! स्वामी में ही सुख-दुःख और जीवन का सर्वस्व है, यह मानकर सुखी रहना । तेरी भावना मैंने पूरी की है। अब मैं अधिक रुक नहीं सकता - अभी मुझे दूर -दूर के प्रदेशों तक जाना है ।'
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भट्टमात्र ने बीच में कहा - 'महात्मन्! आपके वरदहस्त से कन्यादान.... विद्याधर बोला- 'यह लाभ तो मुझे लेना ही है।'
इसके बाद पिता-पुत्री रथ में बैठे। विक्रमादित्य और भट्टमात्र भी साथ थे। रथ राजभवन में पहुंचा।
विक्रम ने महारानी कमला को सारी बात बताई। वह अत्यन्त प्रसन्नता से कलावती से मिली और संध्याकाल में अवंती नगरी में विवाह की आयोजना हुई। कन्यादान की विधि सम्पन्न कर, अलंकार आदि का उपहार देकर विद्याधर धीर रात्रि के प्रथम प्रहर के बीत जाने पर वहां से प्रस्थित हो गया।
सुख और आनन्द के दिन बहुत छोटे होते हैं। कब दिन उगता है और कब अस्त होता है, यह ज्ञात ही नहीं होता । दुःख के दिन लम्बे होते हैं। एक-एक क्षण एक युग जैसा लगता है। समय के बीतने में कोई अन्तर नहीं आता, किन्तु जब दुःख और सुख का स्पर्श होता है, तब ऐसा परिवर्तन सहज है।
रानी कलावती के रूप-गुण से महाराज मुग्ध हो जाएं, यह सहज थापरन्तु रानी कमला भी अत्यन्त प्रसन्न बन गई थी ।
रानी कलावती के लिए अलग निवास का प्रबन्ध हो चुका था। वह दिन का अधिक समय देवी कमलारानी के पास में ही बिताती थी । आठ दिन-रात बीत गए। विक्रम को ऐसा प्रतीत हुआ कि लोग इन्द्र के सुख की कितनी ही समृद्ध कल्पना क्यों न करें, किन्तु स्वयं जो सुखोपभोग कर रहा है, वह इन्द्र के सुख से अनंतगुना अधिक है।
किन्तु नौवें दिन सुख से छलकते उसके हृदय पर एक वज्राघात हुआ । अवंती के एक धनाढ्य सार्थवाह के घर करोड़ों रुपयों के रत्नालंकारों की चोरी हो गई। यह चोरी भी मांत्रिक चोर ने ही की थी। पूरी नगरी घबरा उठी। जिस
वीर विक्रमादित्य १४६