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'अपनी नगरी में चोर ? इतने-इतने रक्षक, चौकीदार और गुप्तचर हैं, फिर भी चोर पकड़ में नहीं आया?' विक्रमादित्य का चेहरा तमतमा उठा।
'महाराज! चोर असाधारण है। अदृश्य रहकर वह चोरी करता है। वह चोरी ही नहीं करता, पर....।'
'बोलो, वह और क्या करता है?'
'उस दुष्ट चोर ने अपने नगर की चार श्रेष्ठी-कन्याओं का भी अपहरण किया है।'
'अपहरण?' 'हां, कृपानाथ!'
'और आपकी बुद्धि उस चोर के अवरोध में सफल नहीं हो सकी? यहां का गुप्तचर विभाग सम्पूर्ण देश में बेजोड़ गिना जाता है। हमारा कोतवाल पाताल से भी गुनहगार को खोज निकालने में निपुण है। महाबलाधिकृत भी निपुण है। यह तो अत्यन्त दु:खद घटना है।' विक्रम ने एक ही सांस में कह डाला।
... 'समग्र प्रजा के लिए, हमारी शक्ति के लिए तथा हमारे कर्मचारियों की बुद्धि के लिए यह चोर एक चुनौती बन गया है। इस चोर को पकड़ने के लिए हमारा पूरा तंत्र लगा हुआ है। किन्तु इस चोर के कोई चिह्न भी नहीं मिल पाते। वह कहां रहता है, कहां से आता है, इसके साथी कौन-कौन हैं-इसका कुछ भी पता नहीं लगता। मेरा अनुमान है कि यह चोर कोई तांत्रिक शक्तियों से सम्पन्न है।' महामंत्री भट्टमात्र ने कहा।
'ओह!' कहकर विचारमग्न विक्रम अपने खण्ड में ही इधर-उधर घूमने लगे।
कमला बोली-'कृपानाथ! मैं आपको यह बात तभी बताती, जब आप विश्राम कर चुके होते।'
___'देवी! जो राजा अपनी प्रजा का यह दु:ख दूर नहीं कर सकता, तो निश्चित ही वह अयोग्य शासक है।'
उसी समय महाप्रतिहार कक्ष में प्रविष्ट हुआ।
विक्रम ने उसकी ओर देखा । कुछ पूछताछ कर कहा, 'महामंत्री! कल तुम महाबलाधिकृत, नगर-रक्षक, गुप्तचर विभाग के अधिकारी आदि सभी को एकत्र करना। वे प्रात:काल ही यहां आ जाएं, ऐसी सूचना करना। इस प्रश्न को हमें समाहित करना ही होगा। हमें उपाय ढूंढना ही होगा।'
महामंत्री ने मस्तक नमाकर विक्रमादित्य की आज्ञा को स्वीकृति दी। फिर कुछेक विषयों की चर्चा कर विक्रमादित्य ने महामंत्री आदि को वहां से विदाई दी।
१४२ वीर विक्रमादित्य