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नगर-रक्षक बोला- 'कृपानाथ ! हमने यह सारी व्यवस्था सुचारु रूप से कर दी है । '
विक्रम ने कहा- 'फिर भी कहीं-न-कहीं कोई कमी अवश्य रही है। जब तक प्रजा की वेदना को स्वयं की वेदना न माना जाए, तब तक उस वेदना के निवारण का कोई उपाय प्राप्त नहीं होता। तुम सबको यह एक बात समझ लेनी चाहिए कि कन्याओं का अपहरण हुआ है, वे चारों कन्याएं दूसरों की नहीं, मेरी हैं, तुम्हारी हैं । '
सभी महाराजा विक्रमादित्य की ओर प्रश्न-भरी दृष्टि से देखने लगे । महाराजा ने कहा, ‘महामंत्री ! आज हम दोनों रात्रि के समय नगर के बाहर जाएंगे। चोर कितना ही महान् क्यों न हो, मैं उसे पकड़े बिना सांस नहीं लूंगा। यदि दो महीनों के भीतर मैं उसे न पकड़ पाऊं, तो तुम सब स्मृति में रखना कि मैं अवंती के राजसिंहासन के योग्य नहीं हूं और उस महान् सिंहासन पर बैठने का मुझे कोई अधिकार नहीं है । '
भट्टमात्र बोले – 'कृपानाथ ! इस प्रकार आवेश में ... ।'
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बीच में ही विक्रम ने कहा, 'महामंत्री ! चार-चार कन्याओं का अपहरण हो और राजा और उसके अधिकारियों का खून न खौल उठे, तो उनकी मानवता को धिक्कार है। आज से साठ दिनों के भीतर चोर को, जीवित या मृत अवस्था में पकड़कर दिखाना होगा । यदि चोर पकड़ में नहीं आया, तो मुझे राज्य-त्याग करना ही होगा ।'
सभी ने अवाक् बनकर विक्रमादित्य की ओर देखा । मंत्रणा पूरी हुई।
नगर-रक्षक और महाबलाधिकृत ने चारों ओर गुप्तचर और सैनिक भेजे। रात्रि के समय महामंत्री भट्टमात्र को साथ लेकर विक्रमादित्य नगर के बाहर निकल पड़े। पूरी रात घूमते रहे, पर कोई स्थान नहीं मिला ।
दूसरे दिन दोनों दूसरी दिशा में गए।
और तीसरे दिन संध्या के पश्चात् महामंत्री जब राजप्रासाद में पहुंचे, तब विक्रमादित्य तैयार बैठे थे। महामंत्री को देखते ही वे बोले-'भट्टजी ! आज तो हमें अभी निकल जाना चाहिए ।'
'मैं तैयार हूं।'
'कल रात मुझे विचित्र स्वप्न आया था। जब हम नगर की परिक्रमा कर लौटे तब रात्रि का तीसरा प्रहर पूरा होने वाला था। मैं विचारमग्न होकर सो गया और कुछ ही समय पश्चात् स्वप्न प्रारम्भ हुआ। मैंने देखा, दक्षिण दिशा में अवंती १४४ वीर विक्रमादित्य